पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१२०

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किया है, सो इस बखान के समय इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि मैंने वह जो कुछ किया था उसका लक्ष्य था परोपकार !

रुक्मि०--प्रशो, यदि वह सब काम आपने परोपकार के लिए किए तो यह काम गृहोपकार के लिए कीजिए। नहीं तो मैं यह कहूंगी कि संतान पर माता जितना प्यार रखती है, पिता उतना नहीं रखता।

श्रीकृ०--तो क्या तुम यह कहोगी कि पिता के नाम का पहला प्रज्ञर 'पा पुत्र का पालन पोषण सूचित नहीं करता है ?

रुक्मि०--करता है, परन्तु माता के नाम का 'म' तो साक्षात् ममता की मूर्ति होता है । यदि विश्वास न हो तो प्रत्यक्ष देखलीजिए, वह देखिए, मातृ-स्नेह की सजीव मूर्ति आपके सामने इधर ही प्रारही है !

श्रीकृ०--हैं । यह कौन आरही है ? क्या रुक्मावती ?

रुक्मि०--हां, प्रद्युम्न की स्त्री,अनिरुद्धकी माता और आपकी पुत्रवधू पुत्रो रुक्मावती !

[खमावती का प्रदेश ]
 

रुक्मावती-भाह अनिरुद्ध । बेटा अनिरुद्ध !
रुक्मि०- द्वारिकानाथ, देख रहे हैं आप !

यह आँसुमों की धारा माता की मामता है।
इस प्यार के कृजे में सागर भरा हुधा है।

रुक्मा०-(कृष्ण से) भगवन् , मैंने आजतक कुल की मर्यादा को ध्यान में रखकर आपके सामने मुंह भी नहीं खोला है, परन्तु भाज पुत्र पर संकट जानकर मेरा रुओं रुआँ डोला है। इसीलिए