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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१३८

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वाणाo--[प्रसन्न होकर] जय, जय, चक्रधारी की जय । आज मेरे धन्य भाग्य है जो मेरे द्वार पर चक्रधारी और त्रिशूलधारी दोनों आये हैं, पुत्री ऊषा के कारण मैंने हरिहर के एकसाथ दर्शन पाये हैं। [कृष्णदास और अन्यान्य शैव वैष्णवों का वहां आना]

कृष्णदास--देखो, हरिहर मे भेद समझनेवालो, देखो ! जिस प्रकार संगम पर गङ्गा और यमुना में द्वैत नही है, उसी प्रकार विष्णु और शिव में भेद नहीं है। एक ओर यमुना-तट-विहारी हैं तो दूसरी ओर गङ्गधारी हैं, और बीच मे सरस्वती के समान यह ऊषा कुमारी हैं। इसलिए इस एकतो की त्रिवेणी में स्नान करके संगठन रूपी अक्षयवट का दर्शन करो और अपने समस्त रापों का अघमर्षण करो।

श्रीकृ०--भक्तराज कृष्णदास ! तुमने अपने प्रण को खब निभाया है । शैव और वैष्णव का मगड़ा मिटाकर एकता का झंडा फहराया है । तुम्हार पिता की आत्मा को इससे पूर्ण स्त प्राप्त होगी और अंतमें तुम्हें भी मेरे धाम की प्राप्ति होगी।

शिव--भक्त वाणासुर, अब देवर्षि नारदजी के हाथ से कुमारी ऊषा का अनिरुद्ध के साथ पाणिग्रहण करात्रो और इस रूप में शैव वैष्णव के संगठन का प्रत्यक्ष प्रमाण संसार को दिखाओ।

श्रीकृ०--पुत्री ऊषा, मेरा वरदान है कि भारत की नारियाँ सदैव तुम्हारा गुण गायेंगी और चैत्र मास मे तुम्हारा चरित्र श्रवण कर अचल सौभाग्य का फल पायेंगी।

[नारद ऊषा और अनिरुद्ध का पाणिग्रहण कराते हैं]