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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१६

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थल, बेल बूंटे और फूल पत्ते सब उसके वशीभूत हो जाते हैं। जिस प्रकार सूखी खेती को पानी हरा करदेता है ठीक उसी प्रकार मनुष्य के थके हुये अंशों को शृंगार प्रोत्साहित कर देता है। जिस प्रकार अधिक वर्षा खेती को हानि पहुंचाती है, उसी प्रकार कृत्रिम और अप्राकृतिक शृङ्गार रसकी अधिक मात्रा मनुष्य में आलस्य, प्रमाद आदि उत्पन्न करके उसे जीवन युद्ध के सर्वथा अयोग्य बना देती है। यही कारण है कि हमारे देशके नवयुवक नाटक देखकर अपना चरित्र सुधारने की अपेक्षा उसे बहुत जल्दी बिगाड़ लेते हैं। नाटक के अन्य रस उनमें कोई उच्चभाव प्रकट करने की दृढ़ता नहीं रखते, केवल शृंगार से उनके चक्षु चौंधिया जाते हैं। इस नाटक में शृंगार रस है और होना भी चाहिये था, परन्तु यह उपर्युक्त दोषों से रहित है। यदि प्राकृतिक सौंदर्य का रसास्वादन करना हो, तो ऊषा के विरह जनित वाक्यों को पढ़ जाइये। प्रेमके कारण ऊषा का मन उद्विग्न तो होता है, परन्तु समुद्र के समान उसमें गम्भीरता विद्यमान रहती है।

नाटक में हास्यरस है, क्योंकि बिना इसके नाटक का स्टेज पर पास होना असम्भव है। कोई मनुष्य भी जीवन में सदा गम्भीर विचारों और उच्च भावों में निमग्न नहीं रह सकता। उसके लिये अनिवार्य होता है कि समय समय पर वह भिन्न रसों का आस्वादन करे। इस नाटक में वह गंदा मज़ाक और हंसी दिल्लगी नहीं है जिसको हम अपनी सन्तान और स्त्रियों को दिखाते हुए झिझकें, बल्कि हंसी उस कोटि की है जिस पर अनपढ़ों की अपेक्षा पढ़े लिखों को अधिक श्रद्धा होनी चाहिये। वह हंसी दिल्लगी कोरे मनोरंजन के निमित्त नहीं है। उसका गूढ़ अर्थ भी है। उसके बहानेसे देशके पाखंडी साधुओं और महन्तों की अविद्या, अन्धविश्वास, कपट और छल का वास्तविक चित्र खींचा गया है। संकेतसे यह भी प्रकट करदिया गया है कि यदि हिन्दू जाति के नेता चाहें तो उनमें प्रचार करके उनको जात्युत्त्थान और देशोन्नति की ओर लगा सकते हैं।