पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/३७

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अनाचारी के अत्याचार की जड़ मूल से क्षय हो ।
जमीं आसमाँतक एक वैष्णव धर्म की जय हो ॥

[पहले से] जाओ तुम वैष्णव समाज को कायम करायो । [दूसरे से]तुम शैव सम्प्रदायके आदमियोंके गलेमें विष्णु-कंठी पहनावे को रचना रचाओ । [तीसरे से] तुम वैष्णव दल के अखाड़े खुलवानो, [चौथे से] और तुम प्रचार के काम में लग जाओ:--

ऐसा प्रचार हो कि जगादे जहान को।
त्रैलोक्य सारा जानले वैष्णव की शान को॥
प्राणों के साथ रखना है इस आन बान को।
इस पान कान पर ही मिटाना हैं प्रान को॥

गाना

विश्व का प्यारा है वह, जिसको है प्यारा संगठन ।
क़ौम की क़िस्मत का है ऊँचा सितारा संगठन ॥
निर्धनों का धन है निबेल का है बल,निर्गुण का गुण ।
बेबसों का बस है, बेचारों का चारा संगठन ॥
तीर्थ की पदवी से, होजाती है पद्वी तीर्थराज ।
करत जब जमुना से गंगाजी की धारा संगठन ॥
गर तुम्हें जीना हो जग में, तो यह रक्खो मन्त्रा याद ।
ज़िन्दगी का एक ही बस है सहारा संगठन ।।
संगठन के संगठन जाती है जिस इंसान की ।
उसका करदेता है दुनिया से किनारा संगठन ।।
इन्द्रियों का संगठन रखता है जैसे जिस्म को ।
त्यों ही रक्खेगा हमें बस यह हमारा संगठन ॥