पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/३९

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एक दर्वारी--सत्य है श्री महाराज । परन्तु .....

वाणासुर--हाँ, कहो।

एक दरबारी--आजका आनन्द चौगुना भानन्द होजाता यदि पुत्री के स्थान में पुत्र जन्म का समाचार आता।

वाणासुर--पुत्र हो या पुत्री, दोनोंही आनन्द की वस्तु हैं। जो लोग पुत्री की अपेक्षा पुत्र को ज्यादा प्यार की दृष्टि से देखते हैं मेरी राय में वे भूल करते हैं :-

एक वृक्ष की दो डाले हैं, एक डाल के दो वर हैं।
पुत्री हो या पुत्र जगतमें, दोनों एक बराबर हैं॥

दूसरा दर्वारी--निःसन्देह महाराज के विचार बड़े उत्तम हैं।

वाणासुर--जिस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम के लिये विद्या, वाण- प्रस्थाश्रम के लिये तीर्थ यात्रा और सन्यास के लिये चित्त की वृत्तियों के निरोध का विधान है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम के लिये भी सन्तानोत्पत्ति का आनन्द ही प्रधान है । वे लोग भूलते हैं जो कन्या से पुत्र को अधिक आनन्द की वस्तु समझते हैं । मैं पूछता हूं, क्या कन्या शब्द सन्तान की परिभाषा के अन्दर नहीं भाता है -

एक देह के नयन दो, होते ज्यों शृंगार ।
उसीतरह सुत या सुता, है दोनों इक़सार ॥

एक दर्वारी--श्री महाराज की बात काटना अनुचित है, परन्तु एक बात कहे विना जी नहीं मानता ?

वाणासुर--हां, हां, कहो, वह बात भी कह डालो।

एक दर्बारी--कन्या फिर भी पराई होती है ।