पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/८३

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[आगे बढकर और पलंग पर सोसे अनिरुद्ध को देखकर]अहा--

स्वप्न में अपनी मधुर मूर्ति दिखानेवाले ।
मेरे सीने से मेरे दिल को चुरानेवाले ॥
यह ही तो हैं मेरी बिगड़ी के बनानेवाले ।
आगये आगये मुर्दे को जिलानेवाले ।।

अगादो, बहन चित्रलेखा, मेरे सोते हुए भाग्य को अगादो।

चित्र०--सखी,इतनी व्याकुल न हो, वह स्वयं ही थोड़ी देर में जग जायेंगे। अगर हम उन्हें जगायंगे तो वे तकलीफ पायेंगे।

ऊषा--ऐसाहे तो मत जगायो। मैं उनके जागने तक इंतिज़ार करूंगी ! चकोर की तरह छापने चन्द्रमा को दूर ही से प्यार करूंगी।

चित्र०--धन्य, यही सो प्रेम की चरम सीमा है।

ऊषा--अहा, कैसी अच्छी केशावलि है ! मानो घटाओं की पंक्ति चन्द्रमा को छुपाने के लिए आकाश-मण्डल पर मण्डला रही है। ग्रीष्म ऋतु में धूप की तपिश से काले होजाने वाले हिरनों के समान स्पाह बालो, मैं तुम से लडूंगी । तुम्हारे बोझ से मेरे प्यारे को कहीं तकलीफ न पहुंचे :--

नाग क्यों बैठा उधर तू कुण्डली मारे हुए।
खेलते हैं तेरे भागे तेरे ही मारे हुए ।

चित्र०--प्रेम के दो अक्षरों ने, प्यारी को कविशिरोमणि बना दिया।

ऊषा--हाँ, देखो न बहन चिलेखा, मैं मंठ नही कहती हूं। बन्द घाँस्खों के ऊपर यह दोनों भौहैं ऐसी मालूम होरही हैं मानों दो भौंरी कमलिनियों के खिलने का इन्तिजार कर रही हैं। जगातो, बहन लगादो, कुछ हो, इन्हें जगा दो।