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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/९५

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( ७८ )

गङ्गा०--(चिल्लाकर ) अरे बचाओ बचाओ, गुरूजी मुझे इस दुष्ट से बचाओ।

कृष्ण०--(प्रकट होकर) न घबराओ बेटा न अपराओ ।

माधो०--(प्रवेश करके) क्या है ? क्या है ??

गौरी०--(कांपकर ) अरे बाप रे यहाँ भी यही महाकाल के महापुजारी आगए ।

कृष्ण--(गैरीगिरि से) देखो शैव सम्प्रदाय के पुजारी, तुम्हारा आज का दुराचार न केवल अप्रसन्न होने योग्य बल्कि विककारने योग्य है। हमें संशोप होगा कि तुम शैव होने पर मी सचे शैव बने रहोगे, दूसरे के धर्म पर आक्रमण न करोगे और किसी को क्लेश न पहुंचाओगे:-

है काम नीचता का औरों का माल तकना ।
अपने सुखों की खातिर औरों के सुख को हरना ।
जीते ही जी नरक में यों नारकी हो सड़ना ।
अपने ही माइयों में यों मरना और कटना ॥
मजहब नहीं सिखाता आपुस में वैर रखना ।।

गौरी०--धन्य महाराज,माज मुझे आपके आशीर्वादसे सच्चा बोध होगया। अब मैं आपके बताए हुए मार्ग पर ही चलूंगा। अपने अब तक के अपराधों की क्षमा चाहता हूं। (प्रणाम करता है।

कृष्ण०--उठो,भाई उठो ( यह कह कर गौरीगिरि को गले से लगाते हैं,फिर माधोदास से कहते हैं ) क्यों महन्त जी महाराज, अभी तक आपने अपना ही सुधार नहीं किया तो फिर इस लड़के को कैसे सुधारिएंगा?