पृष्ठ:कंकाल.pdf/१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
प्रथम खण्ड

प्रतिष्ठान के खंडहर में और गंगा-तट की सिकता-भूमि में अनेक शिविर और फूस के झोपड़े खड़े हैं। माघ की अमावस्या की गोधूली में प्रयाग के बाँध पर प्रभात का-सा जनरव और कोलाहल तथा धर्म लूटने की धूम कम हो गई है; परन्तु बहुत-से घायल और कुचले हुए अर्धमृतकों की आर्त ध्वनि उस पावन प्रदेश को आशीर्वाद दे रही है। स्वयं-सेवक उन्हें सहायता पहुँचाने में व्यस्त हैं। यों तो प्रतिवर्ष यहाँ पर जन-समूह एकत्र होता है, पर अबकी बार कुछ विशेष पर्व की घोषणा की गई थी इसलिए भीड़ अधिकता से हुई।

कितनों में हाथ टूटे, कितनों का सिर फूटा और कितने ही पसलियों की हड्डियाँ गँवाकर, अधोमुख होकर त्रिवेणी को प्रणाम करने लगे। एक नीरव अवसाद, संध्या में गंगा के दोनों तट पर खड़े झोंपड़ों पर अपनी कालिमा बिखेर रहा था। नंगी पीठ घोड़ों पर नंगे साधुओं के चढ़ने का जो उत्साह था, जो तलवार की फिकैती दिख़लाने की स्पर्धा थी, दर्शक-जनता पर बालू की वर्षा करने का जो उन्माद था, बड़े-बड़े कारलोबी झंडो को आगे से चलने का जो आतंक था, वह सब अब फीका हो चला था।

एक छायादार डोंगी, जमुना के प्रशान्त वक्ष को आकुलित करती हुई गंगा की प्रखर धारा को काटने लगी––उस पर चढ़ने लगी। माझियों ने कसकर डाँडे लगाये। नाव झूँसी के तट पर जा लगी। एक सम्भ्रान्त सज्जन और युवती, साथ में एक नौकर, उस पर से उतरे। पुरुष यौवन में होने पर भी कुछ खिन्नसा था, युवती हँसमुख थी; परन्तु नौकर बड़ा ही गंभीर बना था। वह सम्भवतः उस पुरुष की प्रभावशालिनी शिष्टता की शिक्षा थी। उसके हाथ में एक बाँस की डोलची थी, जिसमें कुछ फल और मिठाइयाँ थी। साधुओं के शिविरों की पंक्ति सामने थी, वे लोग उस और चले।

सामने से दो मनुष्य बातें करते आ रहे थे––

कंकाल : ३