पृष्ठ:कंकाल.pdf/१५१

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शीतकाल के वृक्षों से नजर आती हुई धूप, थड़ी प्यारी लग रही थी । नये पैरों पर पैर घरे, नुपचाप गाला की दी हुई, पपडे से बंधी एक छोटी-सी पुस्तक नौ गार्नर्मं से देय रहा था । वह प्राचीन नागरी में लिखी हुई थी । उकै अदर शुन्दर तो न थे; पर ये बहुत स्पष्ट । नये कुतुहल से इसे पढ्नै अगा-- मैरी कथा वैटी गाला 1 तुने कितना प्यार करती हैं, इसका अनुमान तुझे छोड़ कर दूसरा नहीं कर, राधा । बेटा भी मेरे ही हृदय कन दुवड़ा है; पर वह अपने बाप । के रंग में रंग गया-पक्का गुजर हो गमा ! पर मेरी प्यारी गाला ! मुझे भरोसा है कि तू मुवे न भूलेगी । जंगल के कोने में बैठी हुई, एक भयानक पति की पत्नी अपने बाल्यकाल की भी स्मृति से यदि अपने मन ही म बलाथै, तो दूसरा उपाय नसा है ? गाला ! सुन, वर्तमान सुप के अभाव में पुरानी स्मृतियों का धन, मनुष्य को पल-भर के लिए सुखी वर राव है, और तु भी अपने शयन में आगे चलकर कदाचित् इसे सहायता मिले, इसलिए मैंने तुझे थोड़ा-सा पडामा और इसे लिखकर ने जाती हैं मेरी माँ मु बड़े गर्व से ग६ में बैठाकर व झार ने मुझे अपनी वती गुनाती, उन्ही परी हुई बातो को इकट्ठी करती है । अढ़ा ना सुमो मेरी कहानी | भरे पिता का नाम मिरज्ञा जमात पा । वे मुगल-धश के एक मानार्थ थे । मथुरा और आगरा के बीच में, उनकी जागीर के कई गाँव घे; पर के प्रागः दिल्ली में ही रहते 1 को-कभी सैर-विकार के लिए जागर पर ले आये । उन्हें प्रेम था शिगार में और हिन्द-कवित्रा हो । सोमदेव नामकः एकः । उनका चाहिन्न और कपि या । इहू अनी हिन्” ५:१५ . उन्हें प्रसन्न रघता । मेरे पिता को घस्नान और * में भी प्रेम । । मुसमान कर ज्ञापसी में पूरे मत्तः ॥ । ' उना । मैने भी इ १६२ : मराव :-"