पृष्ठ:कंकाल.pdf/८१

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माननीय नही, हिन्द-समाज के पैरों में ये बेड़ियाँ हैं ।—सने में बाहर सड़क पर कुछ बालकों के भगुर स्वर सुनाई पड़े, विजप उपर चौंककर देखने लगा छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड, फमण्डस और पीत वरान धारण किये, समस्वर में गाते जा रहे थे-- फस्यचिकिमपिनोहर मम्मयाक्यपपिनौच्चरणीयं श्रीपतेःपगस्मरणीय रेवोल्यभिषजलतरय चन चवों के आगे छोटो दाढ़ी और घने बालों वाला एक गुबना सफेद पटर, धोती पहने, जा रहा था। गृहस्थ सोग उन ब्रह्मचारियों को इसी में कुछ कति देते थे । विजय ने एक दृष्टि से देषकर, मुंह फिरा कर पमुना मैं बहा देखो यह ौस माताब्दी में तीन हजार बी० सी० को अभिनय । समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए पंचस है, रोटी का प्रश्न सबके सामने हैं, फिर भी मूर्ख हिन्द्र अपनी पुरानी अभ्यता का प्रदर्शन कराकर पुण्य-चय रिया चाहते हैं ! | आप तो पाप-पुण्य कुछ मानते ही नहीं विजय बानू ! पाप और कुछ नहीं है यमुनर, जिन्हें हम झिाकर रिया चाहते हैं, उन्ही कम वो पाप माह सकते हैं परन्तु समाज को एक बड़ा भोग उसे मदि म्यासे बना दे, तो वो कर्म हो जाता है, घर्भ हो जाता हैं। देखती नहीं हो, इतने विरुद्ध मत रखनेवाले संसार के मनुष्य अपने-अपने विचारों में पार्मिक बने हैं। जो एक के यहाँ पाप हैं, बही तो दूसरे के लिए पुष्प है। किशोरी पथाप इन लोगो फौ बात सुन रही थी। यह एक स्वार्थ से भरी चतुर की थी। स्वतन्त्रता से रहा चाहती थी, इसलिए सरुले को भी स्वतन्त्र होने में सहामघा देती थी। कभी-फभी यमुना की घमिकता उसे असह्य हो जाती है; परन्तु अपना गौरन बनाये रखने के लिए वह उसका खण्डन न करता, क्योंकि बाह्म घर्माचरण दिखलाना हो उसके पुर्वत चरित्र का आवरण था । मह बराबर पाहती थी कि यमुना और विजय में गाढ़ा परिचय बढे, और इसके लिए यह अवसर भी देती। उसने कहा---विजय इौ से तो तुम्हारे हार्य का भी पाने लगा है, मैमुना ? मह कोई ची वाढ हो नहीं है बहू। क्या करूं यमुना, विजय अशी सका है, मानता भदौ । धीरे-धीरे समझ पगा-अप्रतिम होकर नि-शोरी ने कहा। इतने में एक सुन्दर तरुण थालिंका अपना राता हुआ मुख जिमे भीतर आढे ही नो--किशोरी अह, साहुजी के मन्दिर में आरती देने लोगों न ? | १ मा गई घण्टी | मैं तेरी प्रतीक्षा में ही थी। १२ : प्रसाद वाङ्मय