पृष्ठ:कंकाल.pdf/९२

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यह मान भी हूँ कि विधवा से ब्याह करके तुम एक धर्म सम्पादित करने हो, तब भी घंटी जैसी घड़कों से सुमको जीवन भर के लिए परिणय-त्र में गोधने के लिए में एक मित्र ] गावे अस्सुत नहीं। अच्छा मंगले । तुम मेरे शुभचिन्तक हो; यदि मैं यमुना में क्या करूं ? यह तो... | तुम पिशाच हो ! फड्ढे हुए मंगल उठकर चला गया। विजम ने क्रूर हैंसी-हंसकर अपने-आप कहा—पकडे गये । ठिकाने गर । वह भीतर चला गया। दिन बीत रहे थे । होली पास भाती जाती थी । बिजय ग पौवन उ ज भवि से बढ़ रहा पा । उसे अज्ज की रहस्यमयी भूमि का वातावरण और भी जटिल बना रहा था । ममूना उससे डरने लगी । बहू कभी-अभी मदिरा पीकर एमः बार ही गुप हो जाता । गम्भीर होकर दिन-का-दिन बिता दिया मा । पंदी आर उसमें सजीया ले पाने का प्रयत्न करतो; परन्तु वैसे ही जैसे एक घेहर नौ किसी भग्न झाषीर पर बैठा हुआ पाहा कभी बोल हैं ! | फाल्गुन के शुक्ष की एकादशी के । पर कै पासपाले कदम के नीचे विजय बैठा था । नदिदी ति रही थी । हारमोनियम, पोतल और ग्लास पास ही थे । विजय कभी-कभी एक-दो बूंट पी ले थोर कभी हारमोनियम में एषः तान | निकास नेता । बहुत विलम्ब हो गया था। खिड़की में है। यमुना पुपचाप पर दृश्य देख रही भी। उसे अपने हरद्वार के दिन स्मरण हो मे । निरभ्र गगग में | पन्नती हुई षदिनी--गंगा के वदा पर लौटती हुई पदनी–कानन की हरियाली में हरी-गरी पदनी ! और स्मरण हो रही थी मंगल के प्रणय की पीयूपर्यायी | चन्द्रिका ! एक ऐसी ही चाँदनी रात भी। गंगन से उस छोटी मोठरी में चल मधुर भालोव फैल रहा था। तारा लैटी पी, उसकी लढे तकिये पर बिर गई भी, मगल उस युदात-स्तव को मुद्दों में चार से प रहा था। तृप्ति मी किन्तु उच्च कृति को स्थिर रखने के लिए लालच का अन्त न था। भदिनी विरारती | जाती पी। चन्द्रमा म घीतल लिंगन पो देखकर सोजत होकर भाग रहा था । मकरन्द से तदा हुआ माल चल्किा -पूर्ण के साथ सौरम-राशि विषेर देता यमुना पागल हो उठीं। चसने देखा-सामने विशय यैश हुमा अझ पी रहा है । रारा पहुए-भर जा चुकी हैं । वृन्दावन में दूर से गुहारों की इफ की। गम्भीर ध्वनि और इन्मत्त कण्ठ से रखीले फाप की तुमुन्न ताने उस चाँदनी मैं, उस पगल में मिली थी। एक स्त्री आई, करील की झाडियों में निकभार सिंजय कंकाल : ८६