पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/२७

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बीर० : कुँअर साहब की लाश से क्या तात्पर्य ? मैं नहीं समझा ।

नाहर० : खैर, यह भी मालूम हो जाएगा, पर अब मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि तुम मुझ पर सच्चे दिल से विश्वास कर सकते हो या नहीं ? देखो, झूठ मत बोलना, जो कुछ कहना हो साफ-साफ कह दो ।

बीर० : बेशक, आज की कार्रवाई ने मुझे आपका गुलाम बना दिया है मगर मैं आपको अपना सच्चा दोस्त या भाई उनी समय समझूंगा जब कोई ऐसी बात दिखला देंगे जिससे साबित हो जाय कि महाराज मुझसे खुटाई रखते हैं ।

नाहर० : बेशक, तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है और जहां तक हो सकेगा मैं आज ही साबित कर दूँगा कि महाराज तुम्हारे दुश्मन हैं और स्वयं तुम्हारे ससुर सुजनसिंह के हाथ से तुम्हें तबाह किया चाहते हैं ।

बीर० : बह बात आपने और भी ताज्जुब की कही ।

नाहर० : इसका सबूत तो तुमको , तारा ही से मिल जाएगा । ईश्वर करे, वह अपने बाप के हाथ से जीती बच गई हो ।

बीर० : (चौंक कर) अपने बाप के हाथ से !

नाहर० : हां, सिवाय सुजनसिंह के ऐसा कोई नहीं है जो तारा की जान ले । तुम नहीं जानते कि तीन आदमियों की जान का भूखा राजा करनसिंह कैसी चाल-बाजियों से काम निकाला चाहता है ।

बीर० : (कुछ सोच कर) आपको इन बातों की खबर क्योंकर लगी ? मैंने तो सुना था कि आपका डेरा नेपाल की तराई में है और इसी से आपकी गिरफ्तारी के लिए मुझे नहीं जाने का हुक्म हुआ था !

नाहर० : हां, खबर तो ऐसी ही है कि नेपाल की तराई में रहता हूं मगर नहीं, मेरा ठिकाना कहीं नहीं है और न कोई मुझे गिरफ्तार ही कर सकता है । खैर, यह बताओ, तुम कुछ अपना हाल भी जानते हो कि तुम कौन हो ?

बीर० : महाराज की जुबानी मैंने सुना था कि मेरा बाप महाराज का दोस्त था और वह जंगल में डाकुओं के हाथ से मारा गया, महाराज ने दया करके मेरी परवरिश की और मुझे अपने लड़के के समान रक्खा ।

नाहर० : झूठ ! बिल्कुल झूठ ! (किनारे की तरफ देख कर) अब वह जगह बहुत ही पास है, जहां हम लोग उतरेंगे ।

नाहरसिंह और बीरसिंह में बातचीत होती जाती थी और नाव तीर की तरह