नाहर॰: और भी हैं, यदि चाहूँ तो आधी घड़ी के अन्दर सौ बहादुर इकट्ठे हो सकते हैं।
खड़ग॰: बहुत अच्छी बात है, क्योंकि आज यकायक लड़ाई हो जाना कोई ताज्जुब नहीं।
नाहर॰: बीरसिंह का पता लगा?
खड़ग॰: हाँ, उन्हें जख्मी करके करनसिंह के आदमी ले गए थे, उसी समय मैं भी जा पहुँचा, फिर वह मुझसे क्योंकर छिपा सकता था? आखिर उन्हें अपने कब्जे में किया और अपने आदमियों के साथ अपने डेरे पर भेजवा दिया।
नाहर॰: बीरसिंह की कैसी हालत है?
खड़ग॰: अच्छी हालत है, कोई हर्ज नहीं, जख्म लगे हैं, मालूम होता है, बहादुर ने लड़ने में कसर नहीं की। मेरे आदमियों ने पट्टी बाँध दी होगी। अब देर न करो चलो, सरदार लोग अभी तक बैठे मेरा इन्तजार कर रहे होंगे।
नाहर॰: जी हाँ, जब तक हम लोग न जायेंगे, वे लोग बेचैन रहेंगे।
खड़गसिंह के पीछे-पीछे अपने साथियों के साथ नाहरसिंह फिर उसी मकान में गया जिसमें कुमेटी बैठी थी, कुल सरदार और जमींदार अभी तक वहाँ मौजूद थे। खड़गसिंह को देख सब उठ खड़े हुए। खड़गसिंह ने बैठने के बाद अपनी बगल में नाहरसिंह को बैठाया और सब को बैठने का हुक्म दिया। नाहरसिंह ने अपने साथियों में से एक आदमी को अपने पास बैठाया, जो अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था।
अनिरुद्ध॰: बीरसिंहका पता लगा?
खड़ग॰: हाँ, वह राजा के दगाबाज नौकरों के हाथ में फँस गया था, मैं वहाँ जाकर उसे छुड़ा लाया और अपने डेरे पर भेजवा दिया, अब बच्चनसिंह और हरिहरसिंहको भी पहरे के साथ हमारे लश्कर में भिजवा देना चाहिए।
तुरत हुक्म की तामील हुई, कई सिपाहियों को पहरे पर से बुलवा कर दोनों बेईमान उनके सुपुर्द किए गए और एक बहादुर सरदार उनके साथ पहुँचाने के लिए गया।
खड़ग॰: (नाहरसिंह की तरफ देखकर) हाँ तो करनसिंह का लड़का जीता है? उसे तुम दिखा सकते हो?