सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
७४
 


खड़ग॰: तो कहिये।

नाहर॰: ऊपर के हाल से आपको इतना तो जरूर मालूम हो ही गया होगा कि बेईमान राजा ने तारा के बाप सुजन सिंह को इस बात पर मजबूर किया था कि वह तारा का सिर काट लावे।

खड़ग॰: हाँ, इसलिए कि सुजनसिंह ने दीवानखाने की छत पर से लौंडियों को तो गिरफ्तार किया मगर तारा को छोड़ दिया था।

नाहर॰: ठीक है, राजा यह भी चाहता था कि तारा यदि राजा के साथ रहना स्वीकार करे तो उसकी जान छोड़ दी जाय। इस काम के लिए समझाने-बुझाने पर हरीसिंह मुकरर्र किया गया था, मगर तारा ने कबूल न किया। जिस समय बीरसिंह के बाग में सुजनसिंह अपनी लड़की तारा की छाती पर सवार हो उसे मारा चाहता था, मैं भी वहाँ मौजूद था, उसी समय एक साधु महाशय भी वहाँ आ पहँचे और उन्होंने मेरी मदद से तारा को छुड़ाया। इस समय तारा उन्हीं के यहाँ है।

खड़ग॰: आपने एक साधु फकीर की हिफाजत में तारा को क्यों छोड़ दिया? उस साधु का क्या भरोसा?

नाहर॰: उस साधु का मुझे बहुत भरोसा है। वे बड़े ही महात्मा हैं। यह तो मैं नहीं जानता कि वे कहाँ के रहने वाले हैं, मगर वे किसी से बहुत मिलते-जुलते नहीं, निराले जंगल में रहा करते हैं, मुझ पर बड़ा ही प्रेम रखते हैं, मैंने सब हाल उनसे कह दिया है और अक्सर उन्हीं की राय से सब काम किया करता हूँ, उनके खाने-पीने का इन्तजाम भी मैं ही करता हूँ।

खड़ग॰: क्या मैं उनसे मुलाकात कर सकता हूँ?

नाहर॰: इस बात को तो शायद वह नामंजूर करें। (आसमान की तरफ देख कर) अब तो सवेरा हुआ ही चाहता है, मेरा शहर में रहना मुनासिब नहीं।

खड़गसिंह: अगर आप मेरे यहाँ रहें तो कोई हर्ज भी नहीं है।

नाहर॰: ठीक है, मगर ऐसा करने से कुछ विशेष लाभ भी नहीं है, बीरसिंह को मैं आपके सुपुर्द करता हूँ और बाबू साहब को अपने साथ लेकर जाता हूँ फिर जब और जहाँ कहिये हाजिर होऊँ?

खड़ग॰: खैर, ऐसा ही सही मगर एक बात और सुन लो।

नाहर॰: वह क्या?