हुईं, हाँ बाबाजी, नाहरसिंह और खड़गसिंह तीनों के सिसक-सिसक कर रोने की आवाज कोठरी के बाहर कई दफे आई जिसे हमने भी सुना और स्वप्न की तरह आज तक याद है।
कोठरी से बाहर निकल कर साधु महाशय मुँह पर नकाब डाल बिदा हुए और नाहरसिंह तथा खड़गसिंह उस अदालत में आ बैठे जिसमें बाकी के सरदार लोग बैठे हुए थे। सरदार ने पूछा कि बाबाजी कहाँ गए और उनकी ताज्जुब-भरी बातों का क्या नतीजा निकला? इसके जवाब में खड़गसिंह ने कहा कि बाबाजी इस समय तो चले गए मगर कह गए हैं कि 'मेरे पेट में जो-जो बातें भेद के तौर पर जमा हैं वे कल दर्बार में ज़ाहिर हो जायेंगी, इसलिए मेरे साथ आप लोगों को भी उनका हाल कल ही मालूम होगा'।
आधी रात तक ये लोग बैठे बातचीत करते रहे, इसके बाद अपने-अपने घर की तरफ रवाना हुए।
हरिपुर के राजा करनसिंह राठू का बाग बड़ी तैयारी से सजाया गया, रोशनी के सबब दिन की तरह उजाला हो रहा था, बाग की हर एक रविश पर रोशनी की गई थी, बाहर की रोशनी का इन्तजाम भी बहुत अच्छा था। बाग के फाटक से लेकर किले तक जो एक कोस के लगभग होगा सड़क के दोनों तरफ गञ्ज की रोशनी थी, हजारों आदमी आ-जा रहे थे। शहर में हर तरफ इस दरबार की धूम थी। कोई कहता था कि आज महाराज पाल की तरफ से राजा को पदवी दी जाएगी, कोई कहता था कि नहीं नहीं, महाराज को यहाँ की रिआया चाहती है या नहीं, इस बात का फैसला किया जाएगा और इस राजा को गद्दी से उतार कर दूसरे को राजतिलक दिया जाएगा। अच्छा तो यही होगा कि बीरसिंह को राजा बनाया जाय, हम लोग इसके लिए लड़ेंगे, धूम मचावेंगे और जान तक देने को तैयार रहेंगे।
इसी प्रकार तरह-तरह के चर्चे शहर में हो रहे थे, शहर-भर बीरसिंह का पक्षपाती मालूम होता था, मगर जो लोग बुद्धिमान थे उनके मुँह से एक बात भी नहीं निकलती थी और वे लोग मन-ही-मन में न-मालूम क्या सोच रहे थे।