हुआ कि 'मारो इन लोगों को, एक भी बच के न जाने पावे' उठा और बाबाजी पर तलवार का वार किया। बाबाजी ने घूम कर अपने को बचा लिया मगर राजा के सिपाही और सरदार लोग बीरसिंह और उसके पक्षपातियों पर टूट पड़े। लड़ाई शुरू हो गई और फर्श पर खून-ही-खून दिखाई देने लगा पर बीरसिंह के पक्षपाती बहादुरों के सामने कोई ठहरता दिखाई न दिया।
राजा करनसिंह के बहुत-से आदमी वहाँ मौजूद थे और दो हजार फौज भी बाहर खड़ी थी जिसका अफसर इसी दर्बार में था, मगर बिल्कुल बेकाम। किसी ने दिल खोल कर लड़ाई न की, एक तो वे लोग राजा के जुल्मों की बात सुन पहिले ही बेदिल हो रहे थे, दूसरे, आज की वारदात, बीरसिंह और सुन्दरी का किस्सा, और राजा के हाथ की लिखी चिट्ठी का मजमून सुन कर और राजा को लाजवाब पाकर सभी का दिल फिर गया। सभी राजा के ऊपर दाँत पीसने लगे। केवल थोड़े-से आदमी जो राजा के साथ-ही-साथ खुद भी अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो चुके थे जान पर खेल गए और रिआया के हाथों मारे गए है। इस लड़ाई में बाबू साहब का और राजा करनसिंह राठू का सामना हो गया। बाबू साहब ने करनसिंह को उठा कर जमीन पर दे मारा और उंगली डाल कर उसकी दोनों आँखें निकाल लीं।
इस लड़ाई में सुजनसिंह, शम्भूदत्त और सरूपसिंह वगैरह भी मारे गये। यह लड़ाई बहुत देर तक न रही और फौज को हिलने की भी नौबत न आई।
खड़गसिंह ने उसी समय बीरसिंह को जो जख्मी होने पर भी कई आदमियों को इस समय मार चुका था और खून से तर-बतर हो रहा था, उसी सोने के सिंहासन पर बैठा दिया और पुकार कर कहा:
"इस समय बीरसिंह जिनको यहाँ की रिआया चाहती है राज-सिंहासन पर बैठा दिए गए। राजा बीरसिंह का हुक्म है कि बस अब लड़ाई न हो और सभों की तलवारें मयान में चली जायं।"
लड़ाई शान्त हो गई, बीरसिंह को रिआया ने राजा मंजूर किया, और अंधे करनसिंह को देख-देख कर लोग हंसने लगे।
दूसरे दिन यह बात अच्छी तरह से मशहूर हो गई कि वह बाबाजी जिन्हें देख करनसिंह राठू डर गया था, बीरसिंह के बाप करनसिंह थे। उन्हीं की जुबानी मालूम हुआ कि जिस समय राठू ने सुजनसिंह की मार्फत करनसिंह को जहर दिलवाया उस समय करनसिंह के साथियों को राठू ने मिला लिया था। मगर चार-पाँच आदमी ऐसे भी थे जो जाहिर में तो मौका देख कर मिल गए थे पर