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चौथा खण्ड
 

कुण्डलाका हाथ पकड़ लिया और उस मड़ैयासे थोड़ा किनारे हटा कर ले जाने लगा। कपालकुण्डलाने बड़े ही क्रोधसे झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया। ब्राह्मणवेशीने बड़ी मिठाससे कानोंके पास धीरेसे कहा—“चिन्ता क्यों करती हो? मैं पुरुष नहीं हूँ।”

कपालकुण्डला और आश्चर्यमें आई। इस बातका उसे कुछ विश्वास भी हुआ और नहीं भी। वह ब्राह्मणवेशधारिणीके साथ गयी। उस टूटे घरसे थोड़ी दूर आड़में पहुँचकर उसने कहा—“हम लोग जो कुपरामर्श कर रहे थे, उसे सुनोगी? वह तुम्हारे ही सम्बन्ध में है।”

कपालकुण्डलाका भय और आग्रह बढ़ गया। बोली—“सुनूँगी।” छद्मवेशीने कहा—“तो जबतक न लौटूँ, यहीं प्रतीक्षा करो।”

यह कहकर वह छद्मवेशी उस भग्न घरमें लौट गया। कपालकुण्डला कुछ देर तक यहाँ खड़ी रही। लेकिन उसने जो कुछ सुना और देखा था, उससे उसे बहुत भय जान पड़ने लगा। यह कौन जानता है कि वह छद्मवेशी उसे यहाँ क्यों बैठा गया है? हो सकता है, अपना अवसर पाकर वह अपनी अभिसन्धि पूर्ण किया चाहता हो। यह सब सोचती हुई कपालकुण्डला भयसे विह्वल हो गयी। इधर ब्रह्मवेशीके लौटनेमें देर होने लगी। अब कपालकुण्डला बैठी रह न सकी, तेजीसे घरकी तरफ चली।

उधर आकाश भी घटासे काला पड़ने लगा। जंगलमें चाँदनी से जो प्रकाश फैल रहा था, वह भी दूर हो गया। कपालकुण्डला को प्रतिपल देर जान पड़ने लगी। अतः वह तेजीसे जंगलसे बाहर होने लगी। आनेके समय उसे साफ पीछेसे दूसरेकी पदध्वनि सुनाई पड़ने लगी। पीछे फिरकर देखनेसे अन्धकारमय कुछ