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कपालकुण्डला
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बताया। परस्पर सहायता के लिए वचनबद्ध हुए, विशेष परामर्शके लिए भग्नकुटीमें गये। वहाँ उसने अपना मनोरथ कहा कि तुम्हारी मृत्यु ही उसे अभीष्ट है। इससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं। यद्यपि मैंने इस जन्ममें पाप ही किये हैं, लेकिन मैं इतनी पतित नहीं हूँ कि एक निरपराध बालिकाकी हत्याकी कामना करूँ। मैं इसपर राजी नहीं हुई। इसी समय तुम वहाँ पहुँची। शायद तुमने कुछ सुना हो।”

कपा०—केवल तर्क ही मैंने सुना।

लु०—उस व्यक्तिने मुझे अबोध जानकर कुछ शिक्षा देना चाहा। अन्तमें क्या निश्चय होता है, यह जाननेके लिए तुम्हें एकान्तमें बैठाकर मैं गयी।

कपा०—फिर लौटकर क्यों नहीं आयी?

लु०—ठीक है। कापालिकने तुम्हारी प्राप्ति और पालनसे लेकर तुम्हारे भागने तकका सारा हाल कह सुनाया।

यह कहकर लुत्फुन्निसाने कापालिकका शिखरसे गिरना, हाथ टूटना, स्वप्न आदि सब कह सुनाया! स्वप्नकी बात सुनकर कपालकुण्डला चमक उठी; चित्तमें चञ्चलता भी हुई। लुत्फुन्निसाने कहा—“कापालिककी प्रतिज्ञा भवानीकी आज्ञाका प्रतिपालन है। बाहुमें बल नहीं है, इसलिये दूसरेकी सहायता चाहता है। मुझे ब्राह्मणकुमार समझकर सहायताकी आशासे उसने सब कहा। मैं अभी तक राजी नहीं हूँ। आगे भी राजी नहीं हो सकती। इस अभिप्रायसे मैं तुमसे मिली हूँ, लेकिन यह कार्य भी मैंने केवल स्वार्थसे ही किया है। तुम्हें प्राणदान देती हूँ। लेकिन तुम क्या मेरे लिए कुछ करोगी?”

कपालकुण्डलाने पूछा—“क्या करूँ?”

लु०—मुझे भी प्राणदान दो—स्वामीका त्याग करो।