सायं-संध्या आदिसे वह निवृत्त नहीं हुए, और फिर जलकी असुविधाका ध्यानकर उस ख्यालसे निरस्त हुए, तो उन्हें दिखाई दिया कि कुटीमें केवल लकड़ी ही नहीं जल रही है, वरन् चावल आदि पाक द्रव्य भी एक जगह रखा हुआ है। इस सामानको देखकर नवकुमार चकित न हुए—मनमें सोचा अवश्य ही यह कापालिक द्वारा रखा गया है, इसमें आश्चर्यकी ही कौन-सी बात है?
“शस्यं च गृहमागतम्” बुरी बात तो है नहीं। “भोज्यं च उदरागतम्” कहनेसे और भी स्पष्ट समझमें आ सकता। नवकुमार भी इस चीजका माहात्म्य न जानते हों, ऐसी बात नहीं। संक्षेपमें सायंकृत्य समाप्त करनेके बाद चावलको कुटीमें रखी हुई एक हँडीमें पकाकर नवकुमारने डटकर भोजन कर लिया।
दूसरे दिन सबेरे चर्मशय्या परित्यागकर नवकुमार समुद्रतटकी तरफ चल पड़े। एक दिन पहले अनुभव हो जानेके कारण आज राह पहचान लेनेमें विशेष कष्ट नहीं हुआ। प्रातःकृत्य समाप्त कर प्रतीक्षा करने लगे। किसकी प्रतीक्षा कर रहे थे? पहले दिनवाली मायाविनी आज फिर आयेगी—यह आशा नवकुमारके हृदयमें कितनी प्रबल थी, यह तो नहीं कहा जा सकता—लेकिन इस आशाका त्याग वह न कर सके और उस जगहको भी छोड़ न सके। लेकिन काफी दिन चढ़ने पर भी वहाँ कोई न आया। अब नवकुमार उस स्थानपर चारों तरफ घूमकर टहलने लगे। उनका अन्वेषण व्यर्थ था। मनुष्य समागमका चिन्हमात्र भी वहाँ न था। इसके बाद फिर लौटकर उस स्थान पर आ बैठे। सूर्य क्रमशः अस्त हो गये, अन्धकार बढ़ने लगा; अन्तमें हताश होकर नवकुमार कुटीमें वापस आये। कुटीमें वापस आकर नव-