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कपालकुण्डला
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की यह बात कापालिकके कानोंमें पहुँच गयी, उसने कहा—“कपालकुण्डले!”

यह स्वर नवकुमारके कानोंमें मेघ गर्जनकी गरह गूँजने लगा, लेकिन कपालकुण्डलाने इसका कोई उत्तर न दिया।

अब कापालिक नवकुमारका हाथ पकड़कर ले जाने लगा। मनुष्यघाती हाथोंका स्पर्श होते ही नवकुमारकी देहकी धमनियों का रक्त दूने वेगसे प्रवाहित होने लगा। लुप्त साहस एक बार नवकुमारमें फिर आ गया। नवकुमार ने कहा—“हाथ छोड़िये।”

कापालिकने कोई उत्तर न दिया। नवकुमारने फिर पूछा—“मुझे कहाँ ले जाते हैं?”

कापालिकने कहा—“पूजाके स्थानमें।”

नवकुमारने कहा—“क्यों?”

कापालिकने कहा—“वधके लिए।”

यह सुनते ही बड़ी तेजीके साथ नवकुमारने अपना हाथ खींचा। जिस बलसे उन्होंने अपना हाथ खींचा था, उससे यदि कोई सामान्य जन होता, तो हाथ बचा लेना तो दूर रहा, वह गिर पड़ता, लेकिन कापालिकका शरीर भी न हिला; नवकुमारकी कलाई कापालिकके हाथमें ही रह गयी। नवकुमारके हाथकी हड्डी मानो टूटने लगी। मुमुर्षुकी तरह नवकुमार कापालिकके साथ जाने लगे।

रेतीले मैदानके बीचोबीच पहुँचनेपर नवकुमारने देखा कि वहाँ भी लकड़ीका कुन्दा जल रहा था। उसके चारों तरफ तांत्रिक पूजाका सामान फैला हुआ है। उसमें नर-कपालपूर्ण आसव भी