पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/६

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प्रथम खण्ड
 

“दूराध्यश्क क्रनिमस्यतन्ती
तमालताली वनराजिनीला।
प्रभाति वेला लवणाम्बु राशे—
धारानिबद्धेव कलङ्करेखा॥”

[१]

वृद्धके कान कविताकी तरफ न थे, बल्कि नाविक आपसमें जो कथोपकथन कर रहे थे, वह एकाग्र मनसे उसे ही सुन रहा था।

एक नाविक दूसरे नाविकसे कह रहा था—“ऐ भाई! यह काम तो बड़ा ही खराब हुआ। अब कहाँ किस नदीमें आ पड़े—कहाँ किस देशमें आ पड़े, यह समझमें नहीं आता!”

वक्ताका स्वर भयकातर था। वृद्धने भी समझा कि किसी विपद्‌की आशंकाका कोई कारण उपस्थित है। उन्होंने डरते हुए पूछा, “माझी! क्या हुआ है?” माझीने कोई जवाब न दिया। किन्तु युवक उत्तरकी प्रतीक्षा न कर बाहर आया। बाहर आकर देखा कि प्रायः सबेरा हो चला है। चारो तरफ घना कुहरा छाय हुआ है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, किनारा किसी तरफ कुछ दिखाई नहीं पड़ता। समझ गये कि नाविकोंको दिक्‌भ्रम हो गया है। इस समय वह सब किधर जा रहे हैं, इसका ठौर-ठिकाना नहीं है। कहीं खुले समुद्रमें न पड़ जायें, यही उनकी आशंका है।

हिम निवारणके लिये नाव सामनेसे आवरण द्वारा ढँकी हुई थी; इसीलिये भीतर बैठे हुए आरोहियोंको कुछ मालूम न हुआ। किन्तु युवकने अच्छी तरह हालत समझकर वृद्धको समझा दिया; इसपर नावमें महाकोलाहल उपस्थित हुआ। नावमें कई औरतें भी थीं। कोलाहलका शब्द सुनती हुई जो जागीं, तो लगीं चिल्लाने—“किनारे लगाओ, किनारे लगाओ, किनारे लगाओ!”


  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    दूरादयश्चक्रनिभस्य तन्वी
    तमालतालीवनराजिनीला।
    आभाति वेला लवणाम्बुराशे-
    र्धारानिबद्धेव कलङ्करेखा॥