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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/९१

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कपालकुण्डला
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उन्मादिनी यवनी अपना मस्तक उन्नत किये देखती रही। बोली—“इस जन्ममें नहीं, तुम मेरे ही होगे।”

उस कुपित फणिनीकी मूर्ति देख कर नवकुमार सहम गये। लुत्फुन्निसाकी अनिवर्चनीय देह महिमा जैसी इस समय दिखाई दी, वैसी देहमें कभी दिखाई न दी थी। लेकिन उस सौन्दर्यको वज्रसूचक विद्युत् की तरह मनोमोहिनी देखकर भय हुआ। नवकुमार जाना ही चाहते थे, लेकिन सहसा उन्हें एक और मूर्तिका ख्याल हो आया। एक दिन नवकुमार अपनी प्रथम पत्नी पद्मावती के प्रति विरक्त होकर उसे अपने कमरे से निकालने पर उद्यत हुए थे। द्वादशवर्षीया बालिका उस समय जिस दर्दसे मुड़कर उनकी तरफ खड़ी हुई थी, ठीक उसी तरह उसके नेत्र चमक उठे थे, ललाट पर ऐसी ही रेखाएँ खिंच गयी थीं, नासारंध्र इसी प्रकार काँपे थे। बहुत दीनोंसे उस मूर्तिका ख्याल आया न था। ऐसा ही सादृश्य अनुभूत हुआ। संशयहीन होकर धीमे स्वर में नवकुमार ने पूछा—“तुम कौन हो?” यवनीकी आँखें और विस्फारित हो गयीं। उसने कहा—“मैं वही हूँ—पद्मावती।”

उत्तरकी प्रतीक्षा किये बिना ही लुत्फुन्निसा दूसरे कमरे में चली गयी। नवकुमार भी अनमनेसे और शंकित हृदयसे अपने घर लौट आये।