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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/९६

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चौथाखण्ड
 

श्या०—नहीं-नहीं। एक दिन जो हो गया सो हो गया। तुम रातको अकेली न निकलना।

क०—इसके लिए तुम चिन्ता क्यों करती हो? सुन तो चुकी हो, रातको जंगलमें अकेली घूमना मेरा बचपनका अभ्यास है। मनमें विचार करो, यदि मेरा ऐसा अभ्यास न होता, तो आज कभी तुमसे मुलाकात भी न हुई होती।

श्याम०—इस ख्यालसे नहीं कहती हूँ। किन्तु यह ख्याल है कि रातको जंगलमें अकेली घूमना क्या भले घरकी बहू-बेटियोंका काम है? दो आदमियोंके रहने पर तो इतना तिरस्कार उठाना पड़ा, तुम यदि अकेली गयीं, तो भला कैसे रक्षा होगी?

क०—इसमें हर्ज ही क्या है? तुम क्या यह ख्याल करती हो कि मैं रातमें घरके बाहर होते ही कुचरित्रा हो जाऊँगी?

श्या०—नहीं-नहीं। यह ख्याल नहीं। लेकिन बुरे लोग तो बुराई करते ही हैं।

क०—कहने दो; मैं उनके कहनेसे बुरी तो हो न जाऊँगी।

श्या०—यह तो है ही; लेकिन तुम्हें कोई बुरा-भला कहे तो हम लोगोंके मनको चोट पहुँचेगी।

क०—इस तरहकी व्यर्थकी चोट न पहुँचने दो।

श्या०—खैर, मैं यह भी कर सकूँगी, लेकिन भैयाको क्यों नाराज-दुखी करती हो?

कपालकुण्डलाने श्यामासुन्दरीके प्रति एक विमल कटाक्षपात किया। बोली—“इसमें यदि वह नाराज हों, तो मैं क्या करूँ, मेरा क्या दोष? अगर जानती कि स्त्रियोंका विवाह दासी बनना है, तो कभी शादी न करती।

इसके बाद और जवाब-सवाल करना श्यामासुन्दरीने उचित न समझा; अतः वह अपने कामसे हट गयी।