पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/११४

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कबीर-ग्रंथावली

कबीर यहु मन कत गया, जो मन होता काल्हि ।
डूगरि बूठा मेह ज्यू, गया निबाणां चालि ।। २२ ॥
मृतक कूधी जी नहीं, मेरा मन बी है ।
बाजै बाव बिकार की, भो मूवा जीवै ॥ २३ ॥
काटी कूटी मछली, छींकै धरी चहोड़ि ।
कोइ एक अषिर मन बस्या, दह मैं पड़ी बहोड़ि ॥ २४॥
कबीर मन पंषी भया, वहुतक चढ़या प्रकास ।
उहां ही ते गिरि पड़या, मन माया के पास ॥ २५ ॥
भगति दुवारा संकड़ा, राई दसवै भाइ ।
मन तो मैंगल कै रह्यो, क्यू करि सकै समाइ ॥ २६ ॥
करता था तो क्यू रह्या, अब करि क्यू पछताइ ।
बोवै पेड बंबूल का, अंब कहां तें खाइ ॥ २७ ॥
काया दंवत मन धजा, बिप लहरि फहराइ ।
मन चाल्यां देवल चलै, ताका सर्वस जाइ ॥ २८ ।।
मनह मनार्थ छाड़ि दे, तेरा किया न होइ ।
पाणों मैं घोव नीकसै, तौ रूखा खाइ न कोइ ।। २६ ।।
काया कसू कमांण ज्यू, पंचतत्त करि बांण ।
मारौं तौ मन मृग को, नहीं तो मिथ्या जाण ॥ ३० ॥ २६२ ॥
(२४) इसके आगे ख० में ये दोहे हैं-
मूवा मन हम जीवत देख्या, जैसै मड़िहट भूत ।
मूर्वां पीछे उठि उठि लागै, ऐसा मेरा पूत ॥ ४७ ।।
मूवै कांधी जी नहीं, मन का किला विसास ।
साधू तब लग डर करें, जब लग पंजर सास ॥ २८॥
(१०) इसके आगे ख० में यह दोहा है-
कबीर हरि दिवान के क्यूंकर पावै दादि।
पहली बुरा कमाइ करि, पीछे करै फिलादि ॥३१ ।।