पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१२९

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भेष की अंग


(२४) भेष को अंग
  कर सेती माला जपे,हिरदै बहै डंडूल ।
  पग तौ पाला मैं गिल्या,भाजण लागी सुल ।। १
  कर पकरैं अंगुरी गिनैं,मन धावै चहुँ वार ।।
  जाहि फिरांयां हरि मिलै,सो भया काठ की ठौर ।। २ ।।
  माला पहरै मनमुषो,ताथैं कछू न होइ ।
  मन माला कौं फेरतां,जुग उजियारा सोइ ॥ ३॥
  माला पहरै मनमुषी,बहुतैं फिरैं अचेत ।
  गांगी रोलै बहि गया,हरि सूं नांही हेत ॥ ४ ॥
  कबीर माला काठ की,कहि समझावै तोहि ।
  मन न फिरावै प्रापणां,कहा फिरावै मोंहि ।। ५ ।।
  कबीर माला मन की,और सँसारी भेष ।
  माला पहरयां हरि मिलै,तो अरहट कै गलि देष ।।६।।
  माला पहरयां कुछ नहीं, रुल्य मूवा इहि भारि ।
'बाहरि ढोल्या हींगल, भीतरि भरी भँगारि ।। ७ ॥
माला पहरयां कुछ नहीं,काती मन कै साथि ।
जब लग हरि प्रगटै नहीं,तब लग पड़ता हाथि ॥८॥

(५)ख० प्रति में इसके आगे यह दोहा है--
   कबीर माला काठ की मेल्ही मुगधि मुलाइ ।
   सुमिरण की सोधी नहीं,जांणै डीगरि घाली जाइ ॥ ६ ॥
(६)इसके प्रागे ख० में यह दोहा है-
   माला फेरत जुग भया,पाय न मन का फेर ।
   कर का मनका छाडि दे,मन का मनका फेर ॥ ८ ॥