कुसंगति कौ अंग | ४७ |
भरम न भागा जीव का,अनंतहि धरिया भेष ।
सतगुर परचै बाहिरा,अंतरि रह्या अलेष ॥ १६ ॥
जगत जहंदम राचिथा,झूठे कुल की लाज ।
तन बिनसें कुल बिनसिहै,गह्यौ न रांम जिहाज ॥२०॥
पष ले बूडी पृथमीं,झूठी कुल की लार ।
अलष बिसारयौ भेष मैं,बूड़े काली धार ।।२१ ॥
चतुराई हरि नां मिलै,ए बातां की बात ।
एक निसप्रेही निरधार का,गाहक गोपीनाथ ।। २२ ॥
नवसत साजे कांमनीं,तन मन रही सँ जोइ ।
पीव कै मनि भावै नहीं,पटम कीयें क्या होइ ॥ २३ ।।
जब लग पीव परचा नहीं,कन्यां कंवारी जाणि ।
हथलेवा हैं।सैं लिया,मुसकल पड़ी पिछांणिं ॥ २४ ।।
कबीर हरि की भगति का,मन मैं षरा उल्हास ।
मैंवासा भाजै नहीं,हूंण मतै निज दास ।। २५ ॥
मैंवासा मोई किया,दुरिजन काढ़े दूरि ।
राज पियारे रांम का,नगर बस्या भरिपुरि ॥२६॥४६२।।
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(२५) कुसंगति को अंग
निरमल बूंद प्रकास की,पड़ि गई भोमि बिकार ।
मूल बिनंठा मांनवी,बिन संगति भठछार ।। १ ।
मूरिष संग न कीजिए,लोहा जलि न तिराइ ।
कदली सीप भवंग मुषी,एक बूंद तिहुँ भाइ ।। २
हरिजन सेती रूसणां,संसारी सू हेत ।
ते नर कदे न नीपजै,ज्यूं कालर का खेत ॥ ३॥
मारी मंरू कुसंग की,केला कांठै बेरि ।
वो हालै वो चीरिये,साषित संग न बेरि ॥४॥