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कबीर-ग्रंथावली

 ऊँचा मंदर धौलहर,माँटी चित्री पौलि ।
 एक रांम के नांव बिन,जंम पाडैगा रौलि ॥ १८ ॥
 कबीर कहा गरबियौ,काल गहै कर केस ।
 नां जांणै कहाँ मारिसी,कै घर कै परदेस ॥ १६ ॥
 कबीर जंत्र न बाजई,दूटि गए सब तार ।
 जंत्र विचारा क्या करै,चले बजावणहार ।। २० ॥

(१८) ख० प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
   काएं चिणांवै मालिया,चुनै माटी लाइ ।
   मीच सुणैगी पायणीं,उधोरा लैली भाइ ॥ २६ ॥
   काएं चिणांवै मालिया,लांबी भीति उसारि।
   घर तौ साढ़ी तीनि हाथ,घणौं तौ पौंणा चारि ॥ २७ ॥
   ऊँचा महल चिणांइयां,सोवन कलसु चढाइ ।
   ते मंदर खाली पड़या,रहे मसाणौं जाइ ॥ २८ ॥
(१९) इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
   इहर अभागी मांछली,छापरि मांडी आलि।
   डाबरड़ा छूटै नहीं,सकै त समंद सभालि ॥ ३० ॥
   मंछी हुआ न छूटिए,झीवर मेरा काल ।
   जिहिं जिहिं डाबरि हूं फिरौ,तिहि ति हं मांडै जाल ॥ ३१ ॥
   पांणीं मांहि ला मांछली,सकै तौ पाकड़ि तीरि ।
   कड़ी कदू की काल की,आह पहुंता कीर ।। ३२ ॥ .
   मंछ बिकंता देखिया,झीबर के दरबारि ।
   ऊंखड़ियां रत बालियां,तुम क्यूं बंधे जालि ॥ ३३ ॥
   पाणीं मांहैं घर किया,चेजा किया पतालि ।
• पासा पड़या करम का,यूं हम बाँधे जालि ॥ ३४ ॥
   सूकण लागा केवड़ा,तूटी भरहर-माल ।
   पांणीं की कल जांणतां,गया ज सीचणहार ॥ ३५ ॥
(२०) ख०-कबीर जंत्र न बाजई ।