पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६८
कबीर-ग्रंथावली

ऐ सकल ब्रह्मंड तैं पुरिया,अरू दूजा महि थांन जी ।
मैं सब घट अंतरि पेषिया,जब देख्या नैंन समांन जी ।
रांम रसाइन रसिक हैं,अदभुत गति विस्तार जी ।
भ्रम निसा जो गत करै,ताहि सूझै संसार जी ॥
सिव सनकादिक नारदा,ब्रह्म लिया निज बास जी।
कहै कबीर पद पंक्यजा,अब नेड़ा चरण निवास जी ॥ ३०॥

  मैं डोरै डोरै जांऊंगा,तौ मैं बहुरि न भैजलि आंऊंगा ॥टेक॥
सुत बहुत कछु थोरा,ताथैं लाइ लै कंथा डोरा ।
कंथा डोरा लागा,तब जुरा मरण भौ भागा ।
जहां सूत कपास न पूनीं,तहाँ बसै इक मूनीं ।
उस मूनी सूं चितलाऊंगा,तौ मैं बहुरिन भौजलि आंऊंगा ॥
मेर डंड इक छाजा,तहां बसै इक राजा ।
तिस राजा सूं चित लाऊंगा,तौ मैं बहुरि न भौजलि आंऊंगा।
जहाँ बहु हीरा घन मोती,तहाँ तत लाइ लै जोती।
तिस जोतिहिं जोति मिलांऊंगा,तौ मैं बहुरि न भौजलि आंऊंगा ।।
जहां ऊगै सूर न चंदा,तहां देष्या एक अनंदा ।
उस आनंद सूं चित लांऊंगा,तौ मैं बहुरि न भौजलि आंऊंगा।
मूल बंध इक पावा, तहां सिध गणेस्वर रावा ।
तिस मूलहि मूल मिलाऊंगा, तो मैं बहुरि न भौजलि प्रांऊंगा।।
कबीरा तालिब तोरा,तहाँ गोपत हरी गुर मोरा।
वहां हेत हरी चित लांऊंगा,तौ मैं बहुरि न भौजलि आंऊंगा ॥३१॥

  संतौ धागा टूटा गगन बिनसि गया,सबद जु कहाँ समाई ।
  ए संसा मोहि निस दिन ब्यापै,कोइ न कहै समझाई ॥टेक॥
नहीं ब्रह्मंड प्यंड पुंनि नांही,पंचतत भी नांहीं।
इला प्यंगुला सुषमन नांहीं,ए गुंण कहां समांहीं॥