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कबीर-ग्रंथावली

बिन ही प्रेम कहा भयो रोयें,
भीतरि मैख बाहरि कहा धोये ॥
गल गल स्वाद भगति नहीं धीर, '
चीकन चंदवा कहै कबीर ॥ १३६ ॥

 ते हरि के आवैहि किहि कांमां,
जे नहीं चीन्हैं आतमरांमां ॥ टेक ॥
थोरी भगति बहुत अहंकारा,
ऐसे भगता मिलैं अपारा ।
भाव न चीन्हैं हरि गोपाला,
जांनि क अरहट कै गलि माला ॥
कहै कबीर जिनि गया अभिमांनां,
सो भगता भगवंत समांनां ।। १३७ ।।

 कहा भयौ रचि स्वांग बनायौ,
अंतरिजांमी निकटि न आयौ ॥ टेक ॥
विषई विषै दिढावै गावै,
रांम नांम मनि कबहूँ न भावै ।।
पापी परलै जांहि अभागे,
अमृत छाडि बिषै रसि लागे ।।
कहै कबीर हरि भगति न साधी,
भग मुषि लागि मूये अपराधी ॥ १३८ ।।

 जौ पैं फ्यि के मनि नहीं भांये',
तौ का पारोसनि कैं हुलराये ॥ टेक ॥
का चूरा पाइल भमकांयैं,
कहा भयौ बिछुवा ठमकांयैं ।।