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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२५४

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कबीर-ग्रंथावली

ज्यूं माषी मधु संचि करि,जारि जोरि धन कीनो ।
मूयें पीछैं लेहु लेहु करि,प्रेत रहन क्यूं दीनूं ॥
ज्यूं घर नारी संग देखि करि,तब लंग संग सुहेलौ ।
मरघट घाट खैंचि करि राखे,वह देखिहु हंस अकेलौ ॥
रांम न रमहु मदन कहा भूले,परत अंधेरैं कूवा ।
कहै कबीर सोई आप बंधायौ,ज्यूं नलनीं का सूवा ॥ २४१ ॥

  जाइ रे दिन हीं दिन देहा,करि लै बौरी रांम सनेहा ॥टेक॥
बालापन गयौ जोबन जासी,जुरा मरण भौ संकट आसी ॥
पलटे केस नैंन जल छाया,मूरिख चेति बुढ़ापा आया ।।
रांम कहत लज्या क्यूं कीजै,पल पल आउ घटै तन छीजैं ।।
लज्या कहै हूं जम की दासी,एकैं हाथि मुदिगर दूजै हाथि पासी॥
कहै कबीर तिनहूं सब हारया,रांम नांम जिनि मनहु बिसारखा।२४२।

  मेरी मेरी करतां जनम गयौ,
जनम गयौ परि हरि न कह्यौ ।। टेक ॥
बारह बरस बालापन खोयौ,बीम बरस कळू तप न कीयौ ।
तीस बरस कै रांम न सुमिरयौ,फिरि पछितांनौं बिरध भयौ ।
सूकै सरवर पालि बंधावै,लुणैं खेत हठि बाड़ि करै।
आयौ चोर तुरंग मुसि ले गयौ,मोरी राखत मुगध फिरै ।।
सीस चरन कर कंपन लागे,नैन नीर अस राल बहै।
जिभ्या बचन सूध नहीं निकसै,तब सुकरित की बात कहै ।।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ,धन संच्यो कछु संगि न गयौ ।
आई तलब गोपाल राइ की,मैंडी मंदिर छाडि चल्यौ ॥२४३॥


(२४३)ख०-मोरी बधित ।