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कबीर-ग्रंथावली

मूकित पांन परत तरवर थैं,उलटि न तरवरि आवै ॥
जल थल जीव डहके इन माया,कोई जन उबर न पावै ।
रांम अधार कहत हैं जुगि जुगि,दास कबीरा गावै ॥ ३६७ ॥

[ राग धनाश्री ]

  जपि जपि रे जीयरा गोव्यंदो,हित चित परमानंदो रे ।
  बिरही जन को बाल है।, सब सुख अनिंदकंदो रे ॥ टेक ॥
धन धन झीखत धन गयौ,सो धन मिल्यौ न आये रे ।
ज्यूं बन फूली मालती,जन्म अबिरथा जाये रे ॥
प्रांणी प्रीति न कीजिये,इहि झूठै संसारो रे ।
धूंवां केरा धौलहर,जात न लागै बारो रे ॥ . .
माटी केरा पूतला,काहे गरब कराये रे ।
दिवस चारि कौ पेखनौं,फिरि माटी मिलि जाये रे ॥
कांमीं रांम न भावई,भावै विषै विकारो रे ।
लोह नाव पाहन भरी,बूडत नांहीं बारो रे ।।
नां मन मूवा न मरि सक्या,नां हरि भजि उतरवा पारो रे ।
कबीरा कंचन गहि रह्यौ,काच गहै संसारो रे ॥ ३६८ ॥

  न कछु रे न कछू रांम बिनां ।
  सरीर धरे की रहै परंमगति,साध संगति रहनां ॥ टेक ॥
मंदिर रचत मास दस लागे,बिनसत एक छिनां ।
झूठे सुख कै कारनि प्रांनी,परपंच करत धनां ।
तात मात सुत लोग कुटंब मैं,फूल्यो फिरत मनां ।
कहै कबीर रांम भजि बौरे,छाड़ि सकल भ्रमनां ॥ ३६॥

  कहा नर गरबसि थोरी बात ।
  मन दस नाज, टका दस गंठिया,टेढौ टेढौ जात ॥ टेक ॥
कहा लै आयौ यहु धन कोऊ, कहा कोऊ लै जात ।