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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/४४

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कबीर का जीवन अंधविश्वासों का विरोध करने में ही बीता था। अपनी मृत्यु से भी उन्होंने इसी उद्देश्य की पूर्ति की। ' काशी मोक्षदापुरी कही जाती है। मुक्ति की ७ कामना से लोग काशीवास करके यहाँ तन त्यागते हैं और मगहर में मरने का अनिवार्य परिणाम या फल नरक- गमन माना जाता है। यह अंधविश्वास अब तक चला आता है : कहते हैं कि इसी के विरोध में कबीर मरने के लिये काशी छोड़कर मगहर चले गए थे। वे अपनी भक्ति के कारण ही अपने आप को मुक्ति का अधिकारी समझते थे। उन्होंने कहा भी है- जो कासी तन तजै कबीरा ती रामहि कहा निहोरा ! इस अंधविश्वास का उन्होंने जगह जगह खंडन किया है.--- (क) हिरदै कठोर मरया बनारसी नरक न बंच्या जाई। हरि को दास मरै जो मगहर सेन्या सकल तिराई ।। (ख) जस कासी तस मगहर ऊसर हृदय रामसनि होई। प्रादि-ग्रंथ में उनका नीचे लिखा पद मिलता है- ज्यों जल छाडि वाहर भयो मीना । पूरब जनम है। तप का हीना ॥ अब कहु राम कवन गति मोरी । तजिले बनारस मति भइ थोरी ।। बहुत बरस तप कीया कासी । मरनु भया मगहर की बासी ।। कासी मगहर सम बीचारी। अछी भगति कैस उतरसि पारी ।। कहु गुर गजि सिव संभु को जान । मुश्रा कबीर रमता श्री राम ।। • कबीर के ये वचन मरने के कुछ ही समय पहले के जान पड़ते हैं। प्रारंभिक चरणों में जो क्षोभ प्रकट किया गया है, वह इस लिये नहीं.कि बनारस में मरने से उन्हें मुक्ति की आशा थी, वरन इस लिये कि बनारस उनका जन्मस्थान था जो सभी को प्रत्यंत प्रिय होता है। बनारस के साथ वे अपना संबंध वैसा ही घनिष्ठ बत- लाते हैं जैसा जल और मछली का होता है। काशी और मगहर