पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/५४

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हरि मरिहै तो हमहू मरिहैं, हरि न मरै हम काहे . मरिहैं । परंतु साक्षात्कार के पहले इस अमरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। परंतु उस प्रेम का मिलना सहज नहीं है, यह, व्यक्तिगत साधना ही से उपलब्ध हो सकता है। वह पूर्ण आत्मोत्सर्ग चाहता है- कबीर भाटी कलाल की, बहुतक बैठे प्राइ । . सिर सौंपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाइ ॥ जब मनुष्य आत्मोत्सर्ग की इस चरम सीमा पर पहुँच जाता है. तब उसके लिये यह प्रेम अमृत हो जाता है- मीमा झरे अमीरस निकसै तिहि मदिरावलि छाका । इस प्रेमरूप मदिरा को मनुष्य यदि एक बार भी पी लेता है तो जीवन पर्यंत उस का नशा नहीं उतरता और उसे अपने तन मन की सब सुध बुध भूल जाती है- हरि रस पीया जानिए, कबहुँ न जाय खुभार । मैमंता घुमत रहे, नाहीं सन की सार ॥ ___ यह परमानंद की अवस्था है जिसमें मनुष्य का लौकिक अंश, जो अज्ञानावस्था में प्रधान रहता है, किसी गिनती में नहीं रह जाता; उसे अपने में अंतहिंत प्रात्मतत्त्व का ज्ञान हो जाता है और उस ब्रह्म के साथ तादात्म्य की अनुभूति हो जाती है। इसी को साक्षात्कार होना कहते हैं। यह साक्षात्कार हो जाने पर, अर्थात् ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होने पर, मनुष्य ब्रह्म ही हो जाता है-ब्रह्मवित् ब्रह्मव भवति । उपनिषद् के 'तत्त्वमसि' अथवा 'सोऽह' भाव का यही रहस्य है- तूंहू करता तूं भया, मुझमें रही न हूँ। वारी फेरी बलि गई, जित देखो तित हूँ। यह सच है कि ऐहिक अर्थ में निराकार निर्गुण ब्रह्म प्रेम का प्रालंबन नहीं हो सकता, केवल चिंतन का ही विषय हो सकता है,