राम को वियोगिन पाकुलता से उन दिनों की बाट देखती है
जब वह प्रियतम का आलिंगन करेगी-
वै दिन कब आवेंगे भाइ।
जा कारनि हम देह धरी है, मिलिबौं अंग लगाइ ॥
यहाँ जीवात्मा के परमात्मा से मिलने की आकुलता की ओर
संकेत है। इस आकुलता के साथ साथ भय भी रहता है।
सारा विश्व जिसका व्यक्त रूप है, उस प्रियतम से मिलने के लिये
असाधारण तैयारी करने की आवश्यकता होती है। 'हरि की दुल-
हिन' को भय इस आशंका से होता है कि वह उतनी तैयारी कर
सकेगी या नहीं। उसे अपने ऊपर विश्वास नहीं होता। फिर
रहस्य केलि के समय प्रियतम के साथ किस प्रकार का व्यवहार
करना होगा, वह यह भी नहीं जानती-
मन प्रतीति न प्रेम रस ना इस तन में ढंग।
क्या जाणों उस पीव तूं कैसे रहसी रंग ।।
इसमें साक्षात्कार की महत्ता का प्राभास है जो एक साधारण
घटना नहीं है
ज्यों ज्यों जीवात्मा को अपनी पारमात्मिकता का अनुभव
होता जाता है, त्यो त्यो उसका भय जाता रहता है । लौकिक भाषा
में इसी की ओर इस पद में इशारा है-
अब तोहि जान न देहूं गम पियारे । ज्यूँ भाव त्यू होहु हमारे ।।
"यह प्रेम की ढिठाई है।
परमात्मा से मिलने के लियं ऐसी 'ऊँचो गैल, राह रपटोली'
नहीं तै करनी पड़ती जहाँ 'पाव नहीं ठहराया। वह तो घर बैठे
मिल जायेंगे पर उसके लिये पहुँचा हुई लगन चाहिए, क्योंकि
परमात्मा तो हृदय ही में है-
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये । भाग बड़े घरि बैठे आये ।।
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