पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/७४

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   फागुण श्रावत देखि करि, बन रूना मन माहि।
   ऊँची डाली पात हैं, दिन दिन पीले थाहि ॥
 कबीर की चमत्कारपूर्ण उलटवासियाँ भी रहस्यपूर्ण हैं।

कठोपनिषद् के अनुसार मनुष्य का शरीर रथ है जिसमें इंद्रियों के घोड़े जुते हैं,घोड़ों पर मन की लगाम लगी हुई है जो सारथी रूपी बुद्धि के हाथ में है। 'परमपद' का पथिक आत्मा इस रथ पर सवार है,उसकी इच्छा के अनुसार उसका परिचालन होना चाहिए। शरीर सेवक है आत्मा स्वामी है। यह स्वाभाविक क्रम है। परंतु जब स्वामी सो जाय, सारथी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाय और घोड़ों की लगाम निरुद्देश्य ढीली पड़ जाय,तब यह क्रम उलट जाता है; स्वामी का स्थान सेवक ले लेता है। रथ के अधीन होकर स्वामी भटका फिरता है। और प्रायः ऐसा होता है कि घोड़ों (इंद्रियों) के मनमाने आचरण से रथ (शरीर) और स्वामी (आत्मा ) दोनों को अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। भव-जाल में पड़े हुए मनुष्यों की इसी उलटी अवस्था को विशेष कर कबीर ने अपनी उलटवाँसियों द्वारा व्यंजित कर लोगों को आश्चर्य में डाला है-

    ऐसा अद्भुत मेरा गुरु कथ्या, मैं रह्या उभेषै।
    मूसा हस्ती सों लड़ै, कोई विरला पेपै ॥
    मूसा बैठा बांबि मैं, लारै सापणि धाई।
    उलटि मूसै सापिण गिली,यहु अचरन भाई ।।
    चींटी परबत ऊपण्यां,ले राख्यो चौड़े।
    मूर्गा मिनकी सूं लड़े, झल पाणी दौडै ॥
    सुरहीं चूपै बछतलि, बछा दूध उतारै ।
    ऐसा नवल गुणी भया,सारदूलहि मारै ।।
    भील लुक्या बन बीझ मैं,ससा सर मारै ।
    कहै कबीर ताहि गुर.करौं,जो या पदहि बिचारै ॥