फाडि पुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउं ।
जिहिं जिहि भेषां हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराउं ॥ ४१ ॥
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लाई तुझ ।
नां तूं मिले न मैं खुसी, ऐसी बेदन मुझ ॥ ४२ ।।
भेला पाया श्रम सौं, भौसागर के मांहि ।
जे छोडौं तौ डूबिही, गहैं। त डसिय बांह ।। ४३ ।।
रैणा दूर बिछोहिया, रहु रे संपम झूरि ।
देवलि देवलि धाहडी, देसी ऊग सूरि ।। ४४ ॥
सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै ।
दुखिया दास कबोर है, जागै अरू रोवै ॥ ४५ ॥ ११२ ।।
(४) ग्यान बिरह की अंग
दीपक पावक प्राणिया, तल भी प्रांण्या संग ।
तीन्यू मिलि करि जोइया, (तब) उडि उडि पड़ें पतंग ॥ १ ॥
मारया है जे मरेगा, बिन सर थोथी भालि ।
पड़या पुकारै बिछ तरि, प्राजि मरै कै काल्हि ॥ २ ॥
हिरदा भीतरि दो बलै, धूवा न प्रगट होइ।
जाकै लागी सौ लखै, के जिहि लाई सोइ ।। ३ ।।
झल ऊठी झोली जली, खपरा फूटिम फूटि ।
जोगी था सो रमि गया, पास णि रही बिभूत ॥ ४ !।
प्रगनि जु लागी नीर मैं, कंदू जलिया झारि ।
उतर दषिण के पंडिता, रहे बिचारि बिचारि ॥ ५ ॥
(४३) ख-में इसके श्रागे यह दोहा है।
बिरह जलाई मैं जलौं, मो बिरहनि के दुष ।
छाहन बैसों डरपती, मति जलि ऊ रूप ॥४६।।
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९५
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ग्यान बिरह कौ अंग