पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१२५

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मध्य पथ .. 'पाया कहैं ते वावरे खोया कहें ते कूर। 'पाया खोया कछु नहीं ज्यों का त्यों भरपूर ॥२६७।। भनूँ तो को है भजन को तनँ तो का है श्रोन । भजन तजन के मध्य में सो कवीर मन मान ॥२६८।। अति का भला न बोलना अति का भला न चूप । अति का भला न वरसना अति की भली न धूप १२६९। शूर धर्म गगन दमामा वाजिया पड़त निसाने घाव । खेत पुकारै शूरमा अव लड़ने का दाँव ॥२७॥ सूरा सोइ सराहिए लड़े धनी के हेत। पुरजा पुरजा होइ रहै तऊ न छाँडै खेत ।।२७१॥ सूरा सोइ सराहिए अंग न पहिरै लोह । जूझै सव बंद खोलिकै छाँड़े तन का मोह ।।२७२।। खेत न छाँडै सूरमा जूझै दो दल माहि । श्रासा जीवन मरन की मन में श्रानै नाहिं ॥२७३।। अब तो जूझै ही वनै मुड़ चाले घर दूर। सिर साहेव को सौंपते सोच न कीजै सूर ॥२७॥ सिर राखे सिर जात है सिर काटे सिर सोय। जैसे वाती दीप की कटि उँजियारा होय ॥२७॥ जो हारों तो सेव गुरु जो जीतो तो दाँव।' ... सत्तनाम से खेलता जो सिर जाव तो जाप ॥२७॥ खोजी को डर वहुत है पल पल पड़े। विजोग । .. . अन राखत जो तन गिरै सो तन साहेव जोग ।।२७७।।