( १३४ ) पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुत्रा पंडित हुआ न कोय । एकै अच्छर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।।४७४॥ पढ़े गुने सीखे सुने मिटी न संसय सूल । कह कबीर कासों कहूँ येही दुख का मूल ॥४७५॥ पंडित और मसालची दोनों सूझे नाहिं। औरन को कर चाँदना श्राप अँधेरे माहि ।।४७६॥ ऊँचे गाँव पहाड़ पर श्री मोटे की चाँह । ऐसो ठाकुर सेइए उवरिय जाकी छाँह ।।४७७॥ हे कवीर ते उतरि रहु सँवल परोह न साथ । सवल घटे श्री पग थके जीव विराने हाथ ॥४७८॥ अपा तजो श्री हरि भजो नख सिख तजो विकार । सब जिउ ते निरवैर रह साधु मता है सार ॥४७९॥ वह बंधन ते बाँधिया एक विचारा जीव । का बल छूटे आपने जो न छड़ा पीच ॥४०॥ समुझाए समुझे नहीं परहथ श्राप विकाय । में खेंचत ही श्राप को चला सो जमपुर जाय ॥४८॥ वोह तो सहि भया तु मति हाय अयान । तू गुणवंत वे निरगुणी मति एकै में सान ||४८२॥ पूरा साहव सेइए सब विधि पूरा होइ । श्रोचे नेह लगाइए मूली याचे ग्वाइ ॥४८३॥ पहिलं बुरा कमाइ के चाँधी विष के मोट । कोटि कर्म मिट पलक में प्रार्य हरि की पोट ॥४८॥ - - काम सह कामी दीपक दसा सोग्य तेल निवास । कविरा हीरा संत जन सहजै सदा प्रकास ॥४८५||
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