पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१५५

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( १३७ ) भर्म परा तिहुँ लोक में भर्म वसा सव ठाउँ। कहहि कवीर पुकारि के वसे भर्म के गाउँ॥५०॥ युवा जरा वालापन वीत्या चौथि अवस्था आई। जस मुसवा कोतकै विलैया तस जम घात लगाई ॥५०९।। दर्पण केरी जो गुफा सोनहा पैठो धाय । देखत प्रतिमा आपनी मूंकि मूंकि मरि जाय ॥५१०॥ मनुप विचारा क्या करै कहे न खुलें कपाट । श्वान चौक बैठाय कै पुनि पुनि ऐपन चाट ॥५१॥ अहंकार माया तजी तो क्या भया मान तजा नहिं जाय । मान बड़े मुनिवर गले मान सवन को खाय ।।५१२॥ मान बड़ाई कूकरी संतन खेदी जानि । पांडव जग पूरन भया सुपच विराजे प्रानि ।।५१३।। मान बड़ाई जगत में कूकर की पहिचानि । मीत किए मुख चाटही वैर किए तन हानि ॥५१४।। बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर । पंथी को छया नहीं फल लागै अति दूर ।।५१५।। कविरा अपने जीव ते ये दो वातें धोय । मान बड़ाई कारने आछत मूल न खोय ॥५१॥ प्रभुता को सव कोउ भजै प्रभु को भजै न कोय । कह कवीर प्रभु को मजै प्रभुता चेरी होय ॥५१७।। जहँ आपा तहँ आपदा जहँ संसय तहँ सोग । कह कवीर कैसे मटें चारों दीरघ रोग ॥५१८॥ माया त्यागे क्या भया मान तजा नहिं जाय । जेहि मान मुनिवर ठगे मान सवन को खाय ॥५१९॥