पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१६९

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मन पाँचों के वसि परा मन के वस नहिं पाँच । जित देखू तित दौ लगी जित भाD तित आँच ॥६६॥॥ कविरा बेरी सवल हैं एक जीव रिपु पाँच । अपने अपने स्वाद को बहुत नचावै नाच ॥६६३।। कविरा मन तो एक है भावै तहाँ लगाय । भाव गुरू की भक्ति कर भावे विषय कमाय ।।६६६।। मन के मारे बन गए वन तजि वस्ती माहिं। कह कवीर क्या कीजिए यह मन ठहरै नाहिं ॥६६५।। जेती लहर समुद्र की तेती मन की दौर। सहजै हीरा नीपजै जो मन आवै ठौर ॥६६॥ पहले यह मन काग था करता जीवन-घात । अव तो मन हंसा भया मोती चुंगि चुंगि खात ॥६६७।। कविरा मन परवत हता अव में पाया कानि । टाँकी लागी सब्द की निकसी कंचन खानि ॥६६८॥ अगम पंथ मन थिर करै वुद्धि करै परवेस । तन मन सवही छाँड़ि के तव पहुँचै वा देस ॥६६९।। भन मोटा मन पातरा मन पानी मन लाय । मन के जैसी ऊपजै तेसो ही है जाय ॥६७०॥ मन के बहुतक रंग हैं छिन छिन बदलें सोय । एकै रंग में जो रहै ऐसा विरला कोय ॥६७॥ भनुवाँ तो पंछी भया उड़िके चला अकास । ऊपर ही ते गिर पड़ा या माया के पास ॥६७२॥ अपने अपने चोर को सव कोइ डारै मार । मेरा चोर मुझे मिलै सरवस डासै वार ॥६७३॥ मन कुंजर महमंत था फिरता गहिर गंभीर। दोहरी तेहरी चौहरी परि गइ प्रेम · जंजीर ॥६७४