पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१७३

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( १५५ ) राज-दुवारे साधुजन तीनि वस्तु को जाय । कै मीठा के मान को कै माया की चाय ॥७१३।। देखन को सव कोइ भला जैसे सीत का कोट । देखत ही ढहि जायगा वाँधि सकै नहिं पेट ||७१४ा. नाचे गावै पद कहै नाहीं गुरु सों हेत। कह कवीर क्यों नीपजै वीज विहनो खेत ॥७१५।। ब्रह्महि ते जग ऊपजा कहत सयाने लोग। ताहि ब्रह्म के त्यागि विनु जगत न त्यागन जोग ।।७१६।। ब्रह्म जगत का वीज है जो नहि ताको त्याग । जगत ब्रह्म में लीन है कहहु कौन चैराग ||७१७।। नेत नेत जोह वेद कहि जहाँ न मन ठहराय । मन वानी की गम नहीं ब्रह्म कहा किन ताय ।।७१।। एक कर्म है वोवना उपजै वीज वहृत । एक कम है अॅजना उदय न अंकुर सूत ॥७१९॥ चाँद सुरज निज किरन को त्यागि कवन विधि कीन। जाकी किरनै ताहि में उपजि होत पुनि लीन ।।७२०॥ गुरू झरोखे वैठि के सब का मुजरा लेइ । जैसी जाकी चाकरी तैसा ताको देइ ॥७२।। हंसा वक एक रंग लखि चरें एक ही ताल । छीर नीर ते जानिए वक उघरै तेहि काल ||७२२। विन देखे वह देस की बात कहै सो कूर। आपै खारी खात है। वेचत फिरत कपूर ॥७२३।। मलयागिरि के वास में वृच्छ रहा सव गोय । कहिवे को चंदन भया मलयागिरि ना होय ॥७२४॥ काटे आँव न मौरिया फाटे जुरै न कान । गोरख पद परसे चिना कही कौन की सान ||७२५।।