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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१८५

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कि निवाज हि फल माल में ( १६७ ) नादी वादी पढ़ना गुनना बहुचतुराई मीना। कह कवीर सो पड़े न परलय नामभक्ति जिन चीना॥१२॥ अवधू कुदरत की गति न्यारी। . रंक निवाज करे वह राजा भूपति करै भिखारी॥ ये ते लवॅगहि फल नहिं लागै चंदन फूल न फूले। . मच्छ शिकारी रमै अँगल में सिंह समुद्रहि झूले । रेंडा रूख भया मलयागिर चहुँ दिसि फूटी वासा। तीन लोक ब्रह्मांड खंड में देखे अंध तमासा॥ पंगुल मेरु सुमेरु उलंधै त्रिभुवन मुक्ता डोलै । Dगा ज्ञान विज्ञान प्रकासै अनहद वाणी बोलै॥ वाँधि अकाश पताल पठावै सेस स्वरग पर राजै । कहै कवीर राम है राजा जो कछु करै सो छाजे ॥१३॥ क युग अवधू छोड़हु भन विस्तारा । सो पद गहो जाहि ते सद्गति पार ब्रह्म ते न्यारा॥ नहीं महादेव नहीं महम्मद हरि हजरत तब नाहीं। आदम ब्रह्म नाहिं तव होते नहीं धूप नहिं छांहीं ॥ असी सहस्र पैगंबर नाहीं सहस अठासी मूनी। चंद सूर्य तारा गन नाहीं मच्छ कच्छ नहिं दूनी ॥ वेद किताब सुमृत नहिं संयम नाहिं यमन परसाही। वाँग निवाज नहीं तव कमला राम नहीं खोदाही ॥ आदि अंत सन मध्य न होते श्रातश पवन न पानी। 'लख चौरासी जीव जंतु नहिं साखी शब्द न वानी॥ कहहिं कबीर सुनो हो अवधू आगे करहुं विचारा। पूरन ब्रह्म कहाँ ते प्रगटे किरतिम किन उपचारां ॥१४॥