( १८३ ) अठ-दल कँवल पार ब्रह्म भाई, दहिने द्वादस अचिंत रहाई। वाएँ दस दल सहज समाई, यों कँवलन निरवारा है । पाँच ब्रह्म पाँचों अंड घीनो, पाच ब्रह्म निःअच्छर चीनी चार मुकाम गुप्त तहँ कीना, जा मध वंदीवान पुरुप दरवारा है।। दो परवत के संघ निहारो, भँवर गुफा में संत पुकारो हंसा करते केल अपारो, तहाँ गुरन दरवारा है। सहस अठासी दीप रचाए, होरे पन्ने महल जड़ाए मुरली वजत अखंड सदाए, तहँ सोहं भनकारा है। सोहं हद्द तजी तव भाई, सत्त लोक की हद पुनि आई' उठत सुगंध महा अधिकाई, जाको वार न पारा है।। खोड़स भानु हंस को रूपा, वीना सत धुन वजै अनूपा हंसा करे चँवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरवारा है। कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुन चंद्र लखाई पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसो पुरुप दीदारा है। आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुष की तहँ ठकुराई अरवन सूर रोम सम नाँहीं, ऐसा अलख निहारा है। तापर अगम महल इक साजा, अगम पुरुप ताही को राजा खरवन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है। तापर अकह लोक है भाई, पुरुष अनामी तहाँ रहाई जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन ते न्यारा है । काया भेद किया निरवारा, यह सब रचना पिंड मँझारा माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है। आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी वाजी पिंड दिखाई अवगति रचन रची अँड माहीं, ताका प्रतिबिंव डारा है। सन्द विहंगम चाल हमारी, कह कवीर सतगुरु दइ तारी खुले कपाट शब्द झनकारी,पिंड अंड केपार सो देसहमारा है।
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