श्रायं धर्म का अवलंबन करके ही अवतारवाद और मूर्तिपूजा का विरोध किया है। किंतु यह काम स्वामी दयानंद सरस्वती का था, कबीर साहब का नहीं। अपठित होने के कारण उनको वेदों और उपनिषदों की शिक्षाओं का ज्ञान न था; इसलिये इतनी दुर पहुँचना उनका काम न था। उनके काल में पौराणिक शिक्षा का ही अखंड राज्य था, जो अवतारवाद और मूर्तिपूजा की जड़ है। इसलिये यह अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि ये दोनों बातें उनके हृदय में मुसल्मान धर्म के प्रभाव से उदित हुई। कवीर साहब जन्मकाल से ही मुसल्मान के घर में पलं थे, अपक वय तक उनके हृदय में अनेक मुसल्मानी संस्कार परोक्ष एवं प्रत्यक्ष भाव से अंकित होते रहे । वय प्राप्त होने पर वे धर्मजिज्ञासु बनकर देश देश फिरो बलख तक गए । उन्होंने अनेक मुसल्मान धर्माचारयों के उपदेश सुने । ऊजी के पीर और शेख तकी में उनकी श्रद्धा होने का भी पता चलता है। इसलिये स्वामी रामानंद का सत्संग लाम करने पर भी उनके कुछ पूर्व संस्कारों का न बदलना अाधर्म्यजनक नहीं। जो संस्कार हृदय में बद्धमूल हो जाते हैं, वे जीवन पयंत माय नहीं छोड़ते। अवतारवाद श्रीर, मृनिगूजा का विरोध प्रादि कबीर माहब के कुछ ऐसे ही संस्कार है। स्वामी रामानंद की यह महना अल्प नाही कि उन्हाने कर मादय के अधिकांश विचार्ग पर वैष्णव धर्म का रंग स्वतंत्र पथ श्रीमान नपाट मात---माधाना गा गार माग गर्ग गा जिसमा म यो सिकार कर
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