नक्तं दिनं निमज्याप्सु कैवतः किमु पावनः । शतशोपि तथा स्नातः न शुद्धः भावदूषितः ॥ पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिंतकाः । सर्वे व्यसनिनो मूर्खा यः क्रियावान् स पंडितः । वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च । न विप्रभावदुष्टस्य सिद्धि गच्छति कहिचित् ॥ न गच्छति विना पानं व्याधिरोषधशब्दतः । विना परोक्षानुभवं ब्रह्मशब्दैन मुच्यते ॥ मनुष्य का जीवन-समय थोड़ा है, संसार के रहस्य नितांत गूढ़ हैं, ज्ञातव्य वातों की सीमा नहीं, मनुष्य केवल अपने अनु- भव पर निर्भर रहकर अनेक भूलें कर सकता है। अतएव उसको अपने पूर्वज महानुभावों के अनुभवों से काम लेना पड़ता है, उनके सद्विचारों से लाभ उठाने की आवश्यकता होती है। वेद-शास्त्र इत्यादि ऐसे ही अनुभवों और सद्विचारों के संग्रह तो हैं । यदि उनसे कोई लाभ उठाना चाहे तो लाभ उठा सकता है, न उठावे उसकी इच्छा, इसकी कोई शिकायत नहीं। परंतु उसको यह कहने का अधिकार नहीं कि ये समस्त शास्त्र ही मिथ्याचारों के आधार हैं। मिष्टभाषण, शिष्टता, मितभापिता, गंभीरता, शालीनता, ये सद्गुण हैं। इनकी आवश्यकता जितनी अपने लिये है, उतनी औरों के लिये नहीं। मैं यह मानने के लिये प्रस्तुत नहीं कि धर्म- प्रचारक का धर्मप्रचार में कोई स्वार्थ नहीं होता। यह दूसरी बात है कि वह धर्मप्रचार और लोकोपकार ही को अपना स्वार्थ मानता है। पर आत्मसंबंधी न होने के कारण उसका यह भाव परमार्थ अवश्य कहलाता है। परंतु स्मरण रहे कि स्वार्थ के लिये मिष्टभापिता इत्यादि की जितनी श्रावश्यकता है, उससे कहीं अधिक इनकी श्रावश्यकता परमार्थ के लिये है।
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