[ सन्ध्या का समय। ज़ियाद का दरबार ]
ज़ियाद---तुम लोगों में ऐसा एक आदमी भी नहीं है, जो मुस्लिम का सुराग़ लगा सके। मैं वादा करता हूँ कि पाँच हज़ार दीनार उसकी नज़र करूँगा।
एक दर०---हुजूर, कहीं सुराग़ नहीं मिलता। इतना पता तो मिलता है कि कई हज़ार आदमियों ने उनके हाथ पर हुसैन की बैयत की है। पर वे कहाँ ठहरे हैं, इसका पता नहीं चलता।
[ मुअक्किल का प्रवेश। ]
मु०---हुज़ूर को खुदा सलामत रखे, एक ख़ुशख़बरी लाया हूँ। अपना ऊँट लेकर शहर के बाहर चारा काटने गया था कि एक आदमी को बड़ी तेज़ी के साँड़नी पर जाते देखा। मैंने पहचान लिया, वह साँड़नी हानी की थी। उनकी ख़िदमत में कई साल रह चुका हूँ। शक हुआ कि यह आदमी उधर कहाँ जा रहा है। उसे एक हीले से रोककर पकड़ लिया। जब मारने की धमकी दी, तो उसने क़बूल किया कि मुस्लिम का ख़त लेकर मक्के जा रहा हूँ। मैंने वह ख़त उससे छीन लिया, यह हाज़िर है। हुक्म हो, तो क़ासिद को पेश करूँ।
ज़ियाद---( खत पढ़कर ) क़सम खुदा की, मैं मुस्लिम को ज़िन्दा न छोडूँगा। मैं यहाँ मौजूद रहूँ, और १८ हज़ार आदमी हुसैन की बैयत क़बूल कर लें। ( कासिद से ) तू किसका नौकर है?
क़ासिद---अपने आक़ा का।
ज़ियाद---तेरा आक़ा कौन है?
क़ासिद---जिसने मुझे मिस्रियों के हाथ से ख़रीदा था।
ज़ियाद---किसने तुझे खरीदा?
क़ासिद---जिसने रुपए दिये।
ज़ियाद---किसने रुपए दिये?
क़ासिद---मेरे आक़ा ने।