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पृष्ठ:कर्बला.djvu/१३१

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कर्बला

हुसैन---कौन जा सकता है?

अब्बास---सैदावी को भेज दूँ?

हुसैन---बहुत अच्छी बात है।

[ अब्बास सैदावी को बुला खाते हैं। ]

अब्बास---सैदावी, तुम्हें हमारे पहुँचने की खबर लेकर क़ूफ़ा जाना पड़ेगा। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि यह बड़े खतरे का काम है।

सैदावी---या हज़रत, जब आपकी मुझ पर निगाह है, तो फिर ख़ौफ़ किस बात की।

हुसैन---शाबाश, यह खत लो, और वहाँ किसी ऐसे सरदार को देना, जो रसूल का सच्चा बंदा हो। जाओ, खुदा तुम्हें ख़ैरियत से ले जाय।

[ सैदावी जाता है। ]

हुसैन---( दिल में ) सैदावी, जाते हो, मगर मुझे शक है कि तुम जिन्दा लौटोगे! तुमने, जिसे न दीन की हिफ़ाज़त का ख़याल है, न हक़ का, जिसे दुश्मनों ने चारों तरफ से घेर नहीं रखा है, जिसको शहीद करने के लिए फौजें नहीं जमा की जा रही हैं, जो दुनिया में आराम से ज़िन्दगी बसर कर सकता है, महज़ वफ़ादारी का हक़ अदा करने के लिए जान-बूझकर मौत के मुँह में क़दम रक्खा है, तो मैं मौत से क्यों डरूँ।

[ गाते हैं। ]
मौत का क्या उसको ग़म है, जो मुसल्माँ हो गया;
जिसकी नीयत नेक है, जो सिद्क इमाँ हो गया।
कब दिलेरों को सताए फ़िक्र ज़र और ख़ौफ़ का;
अज़्म सादिक उसका है, जो पाक दामाँ हो गया।
क्यों नदामत हो मुझे, दुनिया में गर ज़िन्दा रहा;
जाय ग़म क्या है, जो नज़रे-तेग बुर्रा हो गया।
हो अदू दुनिया में रुसवा, आख़िरत में ग़म नसीब;
मुनहरिफ़ दीं से हुआ, औ' नंग-दौराँ हो गया।