प्रायः सभी जातियों के इतिहास में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएँ होती हैं, जो साहित्यिक कल्पना को अनंत काल तक उत्तेजित करती रहती हैं। साहित्यिक-समाज नित नये रूप में उनका उल्लेख किया करता है, छंदों में, गीतों में, निबंधों में, लोकोक्तियों में, व्याख्यानों में बारंबार उनकी आवृति होती रहती है, फिर भी नये लेखकों के लिए गुंजाइश रहती है। हिन्दू-इतिहास में रामायण और महाभारत की कथाएँ ऐसी ही घटनाएँ हैं। मुसलमानों के इतिहास में कर्बला के संग्राम को भी वही स्थान प्राप्त है। उर्दू और फारसी के साहित्य में इस संग्राम पर दफ्तर-के-दफ्तर भरे पड़े हैं,यहाँ तक कि जैसे हिन्दी-साहित्य के कितने ही कवियों ने राम और कृष्ण की महिमा गाने में अपना जीवन व्यतीत कर दिया, उसी तरह उर्दू और फ़ारसी में कितने ही कवियों ने केवल मर्सिया कहने में ही जीवन समाप्त कर दिया। किन्तु,जहाँ तक हमारा ज्ञान है, अब तक, किसी भाषा में, इस विषय पर नाटक की रचना श यद नहीं हुई । हमने हिन्दी में यह ड्रामा लिखने का साहस किया है।
कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुस- लमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग प्रायः उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिन्दू-मुसलिम वैमनस्य का एक कारण यह भी है कि हम न्हिदुओं को मुसलिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं । जहाँ किसी मुसलमान बादशाह का जिक आया कि हमारे सामने औरंगजेब की तसवीर खिंच गयी । लेकिन अच्छे और बुरे चरित्र सभी समाजों में सदैव होते आये हैं, और होते रहेंगे । मुसलमामों में भी बड़े-बड़े दानी, बड़े-बड़े धर्मात्मा और बड़े-बड़े न्यायप्रिय बादशाह हुए हैं। किसी जाति के महान् पुरुषों के चरित्रों का अध्ययन उस जाति के साथ आत्मीयता के सम्बन्ध का प्रवर्तक होता है, इसमें सन्देह नहीं।
नाटक दृश्य होते हैं,और पाठ्य भी । पर,हमारा विचार है,दोनों प्रकार के नाटकों में कोई रेखा नहीं खींची जा सकती। अच्छे अभिनेताओं द्वारा