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सकी । भय था कि ऐसा करने से संभवतः हमारे मुसलमानबन्धुओं को आपत्ति होगी।

यह नाटक दुःस्वांत ('Tragedy) है । दुःखान्त नाटकों के लिए आवश्यक है कि उनके नायक कोई बीरात्मा हों,ओर उनका शाक- जनक अन्त उनके धर्म और न्याय-पूर्ण विचारों ओर सिद्धान्तों के फल-स्वरूप हो । नायक की दारुण कथा दुःखान्त नाटकों के लिए पर्याप्त नहीं है । उसकी विपत्ति पर हम शोक नहीं करते, वरन् उसकी नैतिक विजय पर आनंदित होते हैं। क्योंकि वहाँ नायक को प्रत्यक्ष हार वस्तुनः उसकी विजय होती है । दुःखान्त नाटकों में शोक और हर्ष के भावों का विचित्र रूप से समावेश हो जाता है । हम नायक को प्राण त्यागते देखकर आँसू बहाते हैं, किन्तु वह आँसू करुणा के नहीं, विजय के होते हैं। दुःखान्त नाटक आत्म-बलिदान की कथा है, और आत्मबलिदान केवल करुणा का वस्तु नहीं, गारव की भो वस्तु है । हाँ, नायक का धीरात्मा होना परम आवश्यक है,जिससे हमें उसकी अविचल सिद्धान्त-प्रियता और अदम्प सत्माहस पर गौरव श्रीर अभिमान हो सके।

नाटक में संगीत का अंश होना आवश्यक है, किन्तु इतना नहीं, जो अस्वाभाविक हो जाय । हम महान् विपत्ति और महान् सुख, दोनों ही दशाओं में रोते और गाते हैं। हमने ऐसे ही अवसरों पर गान की आयोजन की है। मुसलिम पात्रों के मुख से ध्रपद और विहाग कुछ बेजोड़-सा मालूम होता है,इसलिए हमने उर्दू कवियों की गजलें दे दी हैं। कहीं-कहीं अनीस के मर्सियों में से दो-चार बंद उद्धत कर लिये हैं । इसके लिए हम उन महानुभावों के ऋणी हैं। कविवर श्रीधरजी पाठक की एक भारत-स्तुति भी ली गयी है। अतएव हम उन्हें भी धन्यवाद देते हैं।

इस नाटक को भाषा के विषय में भी कुछ निवेदन करना आव- श्यक है। इसको भाषा हिन्दी साहित्य की भाषा नहीं है। मुसलमान -पात्रों से शुद्ध हिन्दीभाषा का प्रयोग कराना कुछ स्वाभाविक न होता । इसलिए हमने वही भाषा रखी है, जो साधारणतः सभ्य समाज में प्रयोग की जाती है, जिसे हिन्दू और मुसलमान, दोनो ही बोलते और समझते हैं।

प्रेमचन्द