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कर्बला

मु॰---हाँ, मैं ही मुस्लिम हूँ। मैं ही तुम्हारा ख़तावार हूँ। अगर चाहते हो, तो मुझे क़त्ल करो। ( कमर से तलवार फेककर ) यह लो, अब तुम्हें मुझसे कोई खौफ़ नहीं है। अगर तुम्हारा ख़लीफ़ा मेरे ख़ून से खुश हो, तो उसे खुश करो। मगर खुदा के लिए हुसैन को लिख दो कि आप यहाँ न आयें। उन्हें ख़िलाफ़त की हवस नहीं है। उनका मंशा सिर्फ़ आपकी हिमायत करना था। वह आप पर अपनी जान निसार करना चाहते थे। उनके पास फ़ौज नहीं थी, हथियार नहीं थे, महज़ आपके लिए अपनी जान दे देने का जोश था, इसी लिए उन्होंने अपने गोशे को छोड़ना मंज़ूर किया। अब आपको उनकी ज़रूरत नहीं है, तो उन्हें मना कर दीजिए कि यहाँ मत आओ। उन्हें बुलाकर शहीद कर देने से आपको नदामत और अफ़सोस के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा। उनकी जान लेनी मुश्किल नहीं; यहाँ की कैफ़ियत देखकर वह इस सदमे से खुद ही मर जायँगे। वह इसे अापका क़सूर नहीं, अपना क़सूर समझेंगे कि वही उम्मत, जो मेरे नाना पर जान देती थी, अगर आज मेरे खून की प्यासी हो रही है, तो यह मेरी ख़ता है। यह ग़म उनका काम तमाम कर देगा। आपका और आपके अमीर का मंशा खुद-ब-खुद पूरा हो जावेगा। बोलो, मंजूर है? उन्हें लिख दूँ कि अापने जिनकी हिमायत के लिए शहीद होना क़बूल किया था, वह अब आपको शहीद करने की फ़िक्र में हैं। आप इधर रुख़ न कीजिए।

[ कोई नहीं बोलता। ]

मु॰---ख़ामोशी नीम रज़ा है। आप कहते है कि यह कैफ़ियत उन्हें लिख दी जाय।

कई आवाज़ें---नहीं, नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं।

मु॰---तो क्या आप यहीं उनकी लाश को अपनी आँखों के सामने तड़फ्ती देखना चाहते हैं।

एक आ॰---मुआज़अल्लाह, हम हज़रत हुसैन के क़ातिल न होंगे।

मु॰---ऐसा न कहिए, वरना रसूल को जन्नत मे भी तकलीफ़ होगी। आप अपनी ख़रज़ के ग़ुलाम हैं, दौलत के ग़ुलाम हैं। रसूल ने आपको हमेशा सब्र और सन्तोष की हिदायत की। आप जानते हैं, वह खुद कितनी